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________________ २६० किसने कहा मन चंचल है हम दर्शन को पुनः दर्शन-मूलक बनाएं । वर्तमान के वैज्ञानिक विकास के बाद यह और प्रज्वलित अपेक्षा हो गई है कि दर्शन का नया अध्याय खुले। यह अध्याय केवल ध्यान के द्वारा ही हो सकता है। जब तक ध्यान की साधना के द्वारा अतिमानसिक चेतना का जागरण नहीं किया जा सकता, जब तक ध्यान 'की साधना के द्वारा मन को प्रशिक्षित नहीं किया जाता, जब तक याम की साधना के द्वारा संवेदनशीलता को विकसित नहीं किया जाता, तब तक दर्शन का नया अध्याय नहीं खुल सकता तथा धर्म और दर्शन के बारे में उभरने वाले प्रश्नों को समाहित भी नहीं किया जा सकता। दर्शन का पहला आयाम है-अतीन्द्रिय-चेतना का जागरण । ध्यानसाधना का प्रथम ध्येय है-अतीन्द्रिय-चेतना का जागरणं। इसका तात्पर्य यह है कि ऐसी सूक्ष्म चेतना जागे जिसके द्वारा सूक्ष्म सत्यों को देख सकें और उनका अनुभव कर सकें। दर्शन का दूसरा आयाम हैं-मन का प्रशिक्षण । हम मन को प्रशि'क्षित कर, मन को सूक्ष्म बनाकर जितना देख सकते हैं उतना स्थूल मन के द्वारा नहीं देख पाते । मन को प्रशिक्षित करने के अनेक सूत्र हैं। उनमें पहला सूत्र है-भावक्रिया । भावक्रिया का अर्थ है-कर्म और मन का सामंजस्य । कर्म और मन दोनों साथ-साथ चलें । मन कहीं भटक रहा है और क्रिया कुछ हो रही है, यह विसंवाद है। जो किया जाए मन उसी में लगा रहे । आदमी चलता है तो मन चलने में ही लगा रहे। ऐसा होने पर ही गमन सही हो सकता है, अन्यथा सब कुछ गड़बड़ा जाता है। ज्योतिषी जा रहा था। शरीर चल रहा था धरती पर और मन आकाश में ग्रहों में भटक रहा था। पैर धरती पर थे और मन आकाश में । चलते-चलते वह गढ़े में जा गिरा । वह चिल्लाया। एक बुढ़िया ने उसे गढ़े से निकाला । वह बोली- "ज्योतिषीजी ! केवल आकाश को ही न देखें, कभी-कभी धरती को भी देख लिया करें।" कितना तीखा व्यंग्य था । न जाने हमारे जीवन में ऐसे कितने व्यंग्य 'पलते हैं। हम करते कुछ हैं, और मन की यात्रा कुछ और ही होती है। जीवन में ऐसे क्षण विरल ही आते हैं जहां कर्म के साथ मन लगा रहता है। मन को प्रशिक्षित करने से कर्म और मन का सामंजस्य साधा जा सकता है। मन को प्रशिक्षित करने का एक मात्र उपाय है-ध्यान । ध्यान सधता है तो मन सध जाता है । खायें तो मन खाने की स्मृति में रहे, चलें तो मन चलने की स्मृति में रहे, बोलें तो मन बोलने की स्मृति में रहे, सोचें तो मन मस्तिष्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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