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प्रेक्षा-ध्यान और मानसिक प्रशिक्षण
प्रेक्षा-ध्यान की साधना के द्वारा दर्शन का नया अध्याय खुल रहा है। मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा हूं इसलिए उसकी विशेषताओं के साथ-साथ उसकी कमियां भी जानता हूं। दर्शन के प्रति मन में एक सम्मान का भाव है तो साथ-साथ उसके प्रति मन में अल्पता का भी भाव है और वह इसलिए है कि आज दर्शन की भूमिका कहां से कहां तक पहुंच गई। जो दर्शन, दर्शनमूलक था, आज वह केवल तक-मूलक रह गया है । दर्शन का अर्थ है-देखना, साक्षात् करना । देखने की जो पद्धति है, साक्षात्कार की जो पद्धति है, उसका नाम है दर्शन । आज देखने की बात छूट गयी, साक्षात् करने की बात लुप्त हो गई । आज केवल तार्किक नियमों के आधार पर दर्शन का समूचा प्रासाद खड़ा हुआ है। आज केवल तर्क है, अनुभूति नहीं। सब कुछ उधार ही उधार । अपना कुछ भी नहीं, स्व-अनुभव कुछ भी नहीं, केवल पर-अनुभव । प्रत्यक्षानुभूति कुछ भी नहीं, केवल परोक्षानुभूति । इसीलिए मध्ययुगीन दर्शन का विकास केवल अनुमान के आधार पर हुआ। जब प्रत्यक्ष का अनुभव नहीं हुआ तब अनुमान की शरण में जाना पड़ा और अनुमान के सहारे सत्य की खोज का दावा करना पड़ा। किन्तु क्या परोक्ष के आधार पर, व्याप्ति के आधार पर सत्य को खोजा जा सकता है ? क्या इनके आधार पर सत्य उपलब्ध हो सकता है ? क्या सूक्ष्म सत्य को तर्क के द्वारा जाना जा सकता है ? कभी नहीं। यह संभव ही नहीं है। प्राचीन दार्शनिक सूक्ष्म सत्य को सूक्ष्म चेतना के द्वारा खोजते थे । जब तक चेतना को सूक्ष्म नहीं किया जाता तब तक सूक्ष्म सत्य नहीं खोजा जा सकता। स्थूल चेतना से स्थूल सत्य ही पकड़ा जा सकता है । सूक्ष्म चेतना में दोनों शक्तियां होती हैं। वह सूक्ष्म सत्य को भी पकड़ सकती हैं और स्थूल सत्य को भी पकड़ सकती हैं। किन्तु स्थूल चेतना में सूक्ष्म सत्य को पकड़ने की शक्ति नहीं होती। आज का वैज्ञानिक सूक्ष्म सत्यों को खोजने में बहुत सफल हुआ है । इसका कारण है सूक्ष्म यन्त्रों का निर्माण । आज सूक्ष्म यन्त्रों के द्वारा सूक्ष्म सत्य खोजे गए हैं । स्थूल यंत्रों के द्वारा सूक्ष्म सत्य नहीं खोजे जा सकते । परमाणु को देखा गया। अणु को तोड़ा गया। यह सब सूक्ष्म यन्त्रों के द्वारा ही हो सका है। तलवार कितनी
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