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________________ २८० किसने कहा मन चंचल है कमजोरी का लाभ उठाना चाहता है। मानसिक स्वास्थ्य के ये कुछेक सूत्र हैं । ये ही समता के सूत्र हैं । जिस व्यक्ति के मन में समता प्रतिष्ठित है वह कभी अपने को अयथार्थ रूप में प्रस्तुत नहीं करेगा । जिस व्यक्ति के मन में सहिष्णुता का विकास है वह समता को साध सकेगा। जिसके मन में सहिष्णुता नहीं है, वह समता नहीं साध सकता । वह बालू क्या समता साध पाएगी जो थोड़ी-सी गर्मी में गर्म हो जाती है और ठंड में ठंडी हो जाती है ? प्रश्न है कि क्या बालू गर्म है ? क्या बालू ठंडी है ? उत्तर कुछ भी नहीं दिया जा सकेगा। वह सर्दी के दिनों में ठंडी और गर्मी के दिनों में गर्म होती है। दिन में बालू गर्म होती है और रात में ठंडी। इसका अपना कुछ नहीं है। वैसे ही हवा भी न ठंडी होती है और न गर्म । सर्दी के दिनों में वह ठंडी और गर्मी के दिनों में गर्म हो जाती है। हवा अपने आप में ठंडी भी नहीं है और अपने-आप में गर्म भी नहीं है। जिस व्यक्ति का मन मूढ़ता से आप्लावित नहीं है जिस व्यक्ति का मन समता में प्रतिष्टित है, वह न ठंडा है और न गर्म, वह न राजी है और न नाराज । कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जिसका मन मूढ़ होता है दह पहले क्षण में राजी होता है और दूसरे ही क्षण में नाराज हो जाता है। मन के अनुकूल होता है तो वह राजी होता है और प्रतिकूल होने पर तत्काल नाराज हो जाता है । वह मदारी के हाथ का बंदर बन जाता है । जब चाहो तब नचा लो, जैसा चाहो वैसा नचा लो। समता के आने पर यह सब छूट जाता है। नाराजगी और राजीपन का चक्र टूट जाता है । __ मन की अनन्त पर्यायें हैं। वह प्रतिपल बदलता रहता है। मन के आधार पर किसी एक निश्चित सिद्धांत की स्थापना नहीं की जा सकती। किसी भी, एक निश्चय की अनुभूति नहीं की जा सकती। मन अनेक रूप बदलता है। इसको एक निश्चय पर ले जाने का एक ही मार्ग है, वह मार्ग है--सहिष्णुता का। सहिष्णुता और समता का पारस्परिक अनुबंध है । सहिष्णुता से समता का विकास होता है । मन अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों स्थितियों को समभाव से सह सके, यह है उसको एक निश्चय पर ले जाना। जब व्यक्ति सत्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है तब समता की साधना विकसित होती है। जो व्यक्ति सत्य के प्रति समर्पित नहीं होता वह सामायिक नहीं कर सकता, समता की साधना नहीं कर सकता। समता और मानसिक स्वास्थ्य अलग-अलग नहीं हैं। समता का ही एक नाम है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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