SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व का नव निर्माण २६५ कारण व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है। वह समाज से परे रहने पर नहीं बनता । एक आदमी दूसरे से बातचीत करता है, स्पष्ट बोलता है। अपनी बात दूसरों को समझाता है और दूसरों की बात स्वयं समझता है, वह विकास समाज के आधार पर ही होता है। यदि समाज न हो तो यह विकास नहीं हो सकता। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के साथ व्यवहार करता है, लेनदेन करता है, यह सारा सामाजिक व्यक्तित्व है। जितनी परस्परता है वह सामाजिक व्यक्तित्व है । समाज के नियम हैं, समाज की व्यवस्थाएं हैं और समाज की अवधारणाएं हैं । एक व्यक्ति एक प्रकार की वेशभूषा पहनता है और दूसरा दूसरे प्रकार की। यह सामाजिक प्रभाव है। जो व्यक्ति जिस समाज में रहता है वह उसकी अवधारणा के अनुसार वस्त्र पहनता है और यदि वह कुछ भी परिवर्तन करता है तो वह स्वयं एक प्रश्नचिह्न बन जाता है । वेशभूषा, व्यवहार और आचार-विचार-ये सारे हमारे सामाजिक व्यक्तित्व के कारण हैं । यदि व्यक्ति अकेला व्यक्ति होता, यदि उसका सामाजिक व्यक्तित्व नहीं होता तो शायद व्यक्ति अपने तक ही सीमित रहता, बहुत विकास नहीं कर पाता। यह हमारे व्यक्तित्व का तीसरा महत्त्वपूर्ण खंड है। चौथा खंड है-शारीरिक व्यक्तित्व । शरीर के आधार पर हमारा एक व्यक्तित्व निर्मित होता है। शरीर की अवधारणाओं के आधार पर, शरीर की दीप्ति के अनुसार एक व्यक्तित्व निर्मित होता है। हमारे बहुत सारे कार्य शारीरिक अवधारणाओं के आधार पर होते हैं। शरीर की मांग के आधार पर, शरीर की तृप्ति और अतृप्ति के आधार पर अनेक वर्जनाएं और कार्य की अनेक विधाएं चल सकती हैं। पांचवां खंड है-मानसिक व्यक्तित्व । यह सब व्यक्तित्वों का भार ढोने वाला है। यह सब व्यक्तित्वों के दायित्वों और प्रतिक्रियाओं का भार ढोता है । परामानसिक व्यक्तित्वों का भार भी वही ढोता है । सभी प्रकार के ध्यक्तित्वों के दायित्व का वहन करना, प्रतिक्रियाओं को झेलना, क्रियाओं का उत्सर्जन करना-यह सब मानसिक व्यक्तित्व करता है। यह व्यक्तित्व मन के आधार पर खड़ा है । इसने अनेक मान्यताएं बना रखी हैं । इनमें दोनों प्रकार को मान्यताएं हैं-वर्जना की मान्यताएं और बहुत करने की मान्यताएं। हमने इतनी मान्यताएं खड़ी कर रखी हैं कि पूरा मानसिक व्यक्तित्व हमारे ऊपर छाया हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy