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________________ २३६ . कोई भी उस शक्ति को जागृत कर सकता है । शक्ति जागरण का अभ्यास जटिल नहीं है । उसमें कुछेक तथ्य अपेक्षित होते हैं । पहला तथ्य है - शिथिलीकरण । प्रत्येक शक्ति के जागरण में इसका महत्त्वपूर्ण योग है । मन का शिथिलीकरण, वाणी का शिथिलीकरण, शरीर का शिथिलीकरण और श्वास का शिथिलीकरण किए बिना कोई भी शक्ति अभिव्यक्त नहीं होती । तनाव की स्थिति में कोई भी शक्ति जागृत नहीं हो सकती । मस्तिष्क में तनाव है, शरीर में तनाव है तो यह स्थिति शक्तिजागरण में बाधक होती है । शिथिलीकरण अर्थात् प्रवृत्ति का विसर्जन । जब प्रवृत्ति का विसर्जन होता है तब भीतरी शक्तियों को जागने का अवसर मिलता है । भीतरी शक्तियां जागना चाहती हैं, किन्तु उनके सामने प्रवृत्ति का अवरोध आ जाता है । वे जाग नहीं पातीं । जब प्रवृत्ति का अवरोध समाप्त होता है तब वे जाग जाती हैं । जो व्यक्ति कायोत्सर्ग साध लेता है, वह शक्ति - जागरण का बीजमन्त्र पा लेता है । किसने कहा मन चंचल है दूसरा तथ्य है - शक्तियों के अपव्यय से बचना । सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति शक्तियों का अपव्यय करता है । आवश्यकता हो या न हो आदमी सोचता रहता है, चिन्तन करता रहता है । मस्तिष्क को एक क्षण भी विश्राम नहीं मिलता । सोते हैं तब भी वह चलता है । स्वप्न आते हैं, मस्तिष्क सक्रिय रहता है । यह शक्ति का कितना बड़ा अपव्यय है ! मन निरन्तर क्रियाशील रहता है । वह कभी स्थिर नहीं होता । शरीर भी स्थिर नहीं रहता । कभी आधा घंटा भी एक आसन में बैठ जाते हैं। तो अनेक स्थानों पर दर्द होने लग जाता है । स्थिरता का हमें अभ्यास ही नहीं है । हम मानते हैं कि यदि मन गतिशील रहेगा, वाणी और शरीर गतिशील रहेंगे तो विकास होगा । शरीर गतिशील होगा तो शक्ति बढ़ेगी, मन गतिशील होगा तो शक्ति बढ़ेगी, मन गतिशील होगा तो चिन्तन की शक्ति विकसित होगी, बुद्धि बढ़ेगी और वाणी गतिशील होगी तो वक्तृत्व का विकास होगा । किन्तु यह उल्टी प्रक्रिया चल रही है । वास्तविकता यह है जब मन, वाणी और काया का अप्रयोग होता है तब शक्ति का जागरण संभव बनता है । इनकी क्रियाशीलता में शक्ति कभी नहीं जाग सकती । इनसे कम काम लेना चाहिए, तभी शक्ति का जागरण हो सकता है । मैं यह नहीं कहता कि इनसे काम लेना ही नहीं चाहिए, किन्तु इनसे कम काम लेना ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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