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• उपसंपदा
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है – हमारे बोलने की अपेक्षाएं ही मौन हो जाएं । अपेक्षा इतनी कम हो कि बोलने की जरूरत नहीं रहे । दो साधक मिले। दो घंटे आमनेसामने बैठे रहे। दोनों नहीं बोले, मौन रहे । दोनों आपस में समझ गए। यह है मौन | भगवान् महावीर साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहे अर्थात् मितभाषी रहे । वे बहुत नही बोलते थे । कुछ ही बात करते थे । विशिष्ट प्रतिमाधारी और जिनकल्प की साधना करने वाले व्यक्ति भी मितभाषी होते हैं। ऐसा नहीं कि वे बोलते ही नहीं । वे बोलते हैं, मौन का अर्थ ही है—अपेक्षाओं को कम कर देना, कम कर देना ।
किन्तु अत्यन्त अपेक्षित ।
बोलने की जरूरत को
साधक उपसंपदा के पांच सूत्रों को स्वीकार करता है । वह इस स्वीकरण से अपने अंतरंग संकल्प से जुड़ जाता है । अब उसे कुछ प्रयोग करने होते है । पहला श्वास का प्रयोग । श्वास हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है, सेतु है । यह बाहर के जीवन और भीतर के जीवन का सेतु है । यह सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर को जोड़ने वाला है । सूक्ष्म शरीर के द्वारा जो प्राण की शक्ति उपलब्ध होती है, वह प्राण श्वास के सहारे चलता है । श्वास और प्राण भिन्न-भिन्न हैं । प्राणशक्ति के लिए श्वास इतना जरूरी है कि यदि श्वास का अनुदान न मिले तो प्राण कुछ नहीं कर पाता । इस ईंधन के बल पर ही वह अपना काम चलाता है । श्वास बहुत महत्त्वपूर्ण वस्तु है । जो श्वास का ठीक अभ्यास नहीं करता वह न मन को वश में कर सकता है और न विकल्पों और विचारों को ही नियंत्रित रख सकता है । श्वास पर नियंत्रण किए बिना चित्त की चंचलता भी नहीं मिट सकती। इसलिए हमें श्वास का ठीक अभ्यास करना चाहिए। श्वास को गहराई से पकड़ना सीखें और मन को इसके साथ इस प्रकार जोड़ दें कि वह बिना जोड़े भी जुड़ा रहे । श्वास को समझ लेने पर यात्रा सुगम हो जाती 1
दूसरी बात है -- शरीर - प्रेक्षा । इसका अर्थ है -- भीतर में देखना | जब हम भीतर देखेंगे तब पहले श्वास दीखेगा और फिर शरीर । शरीर के स्थूल अवयवों को पार कर और आगे भीतर में देखेंगे तब जो देखना है वह दीखेगा । हमारे शरीर में कुछेक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। ऐसे तो हाथ, पैर, आंख, कान आदि सभी महत्त्वपूर्ण हैं । इनके बिना काम नहीं चल सकता । किन्तु इन सब अवयवों को और इन्द्रियों को जो महत्त्वपूर्ण बनाते जानते । वे हैं - चैतन्य - केन्द्र | चैतन्य - केन्द्र सब अवयवों में सक्रियता पैदा
हैं हम उन्हें नहीं
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