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किसने कहा मन चंचल है
को निर्मल बनाना। इस ध्येय के प्रति निरन्तर जागरूक रहने का पहला सूत्र है भाव-क्रिया । और दूसरा सूत्र है-प्रतिक्रियामुक्त-क्रिया। हम विविध काम करते हैं। विविध लोगों के बीच रहते हैं, प्रतिक्रिया के लिए भी बहुत अवसर हो सकते हैं । अकेला आदमी हो तो भी कहीं-कहीं प्रतिक्रिया जुटा लेता है तो जहां पचास आदमी साथ रहते हों, वहां प्रतिक्रिया के लिए अवसर होते हैं । एक अभ्यास करें-क्रिया करें, प्रतिक्रिया से यथा-सम्भव मुक्त रहने का प्रयत्न करें।
जागरूकता का तीसरा सूत्र है-मैत्री। मैत्री का अर्थ है सबमें आत्मानुभूति । सबमें आत्मौपम्य बुद्धि का विकास । आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो-- यह हमारा सूत्र है । स्वयं की आत्मा को देखना है और दूसरे की आत्मा को भी देखना है। जो एक आत्मा को देखने लग जाता है वह सब आत्माओं को देखने लग जाता है । मैत्री का मतलब इतना ही नहीं कि हम किसी से झगड़ा न करें। मैत्री का अर्थ है-आत्मानुभूति करना । अपने में जैसे आत्मानुभूति करते हैं वैसे ही दूसरे में यह अनुभूति कर-'यह भी आत्मा है, परमात्मा है । जैसे आत्मा मेरे में है, वैसी ही आत्मा इसमें है।' जब यह अनुभूति पुष्ट होती है तब व्यक्ति की धारणा बदल जाती है। जब हमारी अनुभूति बाहरी स्तर पर चलती है तब सामने वाले व्यक्ति के विषय में अनेक विकल्प उठते हैं---यह अच्छा है यह बुरा है, यह काला है, यह ठग है, यह मुर्ख है आदि-आदि । इस स्तर पर जो व्यवहार होगा वह भिन्न होगा, वह आत्म-परक नहीं होगा। मैत्री का अर्थ है कि हम सब प्राणियों में उसी परम सत्ता का अनुभव करें जो सत्ता हमारे भीतर विराजमान है । आत्म-तुला का अनुभव ही यथार्थ रूप में मैत्री है।
जागरूकता का पहला सूत्र है-आहार विवेक । जन्म के प्रारम्भिक क्षण से आहार प्रारंभ होता है और अन्तिम क्षण तक चलता है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने की गति-अन्तराल-गति में भी आहार के क्षण रहते हैं । आहार का अर्थ है-बाहर से लेना । जो बाहर से लिया जाता है उसकी शरीर पर या मन पर क्या प्रतिक्रिया होगी-इसका विवेक होना आवश्यक है । जो मन को निर्मल करना चाहे वह इस बात को जाने की कब खाना है, क्या खाना है, कितना खाना है और क्यों खाना है ?
जागरूकता का पांचवां सूत्र है-भाषा-विवेक, मित भाषण या मौन । मौन का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि हम न बोले । मौन का मूल अर्थ
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