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________________ साधना की निष्पत्ति २१३ हैं। उनके स्रावों में परिवर्तन होने लगता है। जो कर्म-शरीर के सक्रिय गुप्तचर थे, हमारे गुप्तचर बन जाते हैं। वे हमारे अधीन हो जाते हैं। वे गुप्तचर नहीं 'खुलेचर' बन जाते हैं। सारी क्रियाओं में परिवर्तन होने लग जाता है । जब ग्रन्थियों के स्राव में परिवर्तन आता है तब अन्तःकरण अपनेआप बदल जाता है । तब किसी उपदेश या बाध्यता की जरूरत नहीं होती। बदलाव अपने-आप आने लग जाता है। __एक व्यक्ति है । वह चेन-स्मोकर है। बहुत सिगरेट पीता है । पहली सिगरेट से दूसरी सिगरेट सुलगाता है। साधना शिविर में आने से पूर्व उससे कहा-'सिगरेट छोड़ दो। इससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।' उसने कहा"क्या मैं इतना भी नहीं समझता? क्या मैं मूर्ख हूं? दुनिया में इतने पदार्थ हैं, यदि व्यक्ति उनका उपभोग न करे तो क्या होगा उन पदार्थों का ? वे फिर बनाए ही क्यों जाएंगे? यदि हम सिगरेट न पीएं तो क्या वह व्यवसाय बन्द नहीं हो जाएगा? क्या आर्थिक दृष्टि से समाज घाटे में नहीं रहेगा ?' ये तर्क हैं उस आदमी के । तर्क के द्वारा उसे नहीं समझाया जा सकता। वह व्यक्ति शिविर में रहा । ध्यान का क्रम सीखा। चैतन्य केन्द्रों पर मन एकाग्र करना सीखा । धीरे-धीरे उसका अन्तःकरण बदलने लगा। उसको सिगरेट से घृणा हो गयी और आज यह स्थिति है कि उसके पास भी यदि कोई सिगरेट पीता है तो उसे वमन जैसा होने लगता है। यह है अन्तःकरण का रूपान्तरण । जब अन्तःकरण बदल जाता है तब किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं होती, किसी धर्मगुरु की आवश्यकता नहीं होती । जो होना होता है वह स्वतः घटित होने लग जाता है । वह द्रष्टा बन जाता है । द्रष्टा के लिए उपदेश व्यर्थ है। भगवान महावीर ने कहा- 'उद्देसो पासगस्सणत्थि'- द्रष्टा के लिए उपदेश नहीं होता। उपदेश अद्रष्टा के लिए होता है। यह शाश्वत सत्य है । इसे हम समझे। उपदेश, शिक्षा और कथन उन व्यक्तियों के लिए हैं जो देखना नहीं जानते, जो द्रष्टा नहीं हैं । हमारी प्रेक्षापद्धति में पहले दिन से ही देखने का अभ्यास प्रारंभ हो जाता है। इसका सूत्र है-स्वयं को देखो, दूसरे को नहीं। हम सदा दूसरों को देखते हैं, स्वयं को नहीं । प्रेक्षा से स्वयं को देखने का अभ्यास परिपक्व होने लगता है। विज्ञान में तीन आयाम मान्य हैं-लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई। उसमें अब चौथा आयाम भी मान्य हो गया है । चौथा आयाम है-काल । पुरुष के भी तीन आयाम हैं-स्मृति, चिन्तन और कल्पना। उसका चौथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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