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अस्तित्व की खोज : सम्यग्दर्शन
आज हमने एक यात्रा प्रारंभ की है । यात्रा के लिए हमने एक मार्ग चुना है । मार्ग पर हर कोई चलता है । हम भी चलते थे और चल रहे हैं । हर मार्ग पर पदचिह्न होते हैं । किन्तु आज हमने एक ऐसा मार्ग चुना है, जिसमें कोई पदचिह्न नहीं है । पदचिह्न होने का अर्थ है - अनुसरण होना । जहां अनुसरण नहीं होता वहां कोई पदचिह्न भी नहीं होता । हमारा मार्ग बिना पदचिह्न का मार्ग है । इसमें कोई किसी का अनुसरण नहीं
करता ।
एक चिन्तन आता है और उसका संस्कार बन जाता है। एक प्रवृत्ति होती है और उसका संस्कार बन जाता है । एक शब्द आता है और उसका संस्कार बन जाता है । चिन्तन चला जाता है, प्रवृत्ति चली जाती है, शब्द चला जाता है, किन्तु वे अपने पीछे कुछ छोड़ जाते हैं । जो छोड़ा जाता है. उसकी आवृत्तियां होती रहती हैं । संस्कार शेष रह जाते I
किन्तु हमने ऐसे मार्ग पर यात्रा शुरू की है, जिसमें कोई अनुसरण नहीं है, पदचिह्न नहीं है । जब चलने वाला अपने मार्ग में आसक्त हो जाता है तब पदचिह्न शेष रह जाते हैं । किन्तु जो विरत होता है, जिसे मार्ग का कोई मोह नहीं रहता, उसके कोई पदचिह्न नहीं होता । मार्ग चलने के लिए होता है, मार्ग आसक्ति के लिए नहीं होता, मोह करने के लिए नहीं होता । जो चलता है वह चला जाता है । जो आता है वह जाता है, पीछे कुछ भी शेष नहीं छोड़ता । ऐसा मार्ग ही उत्तम होता है । हमने भी ऐसा ही मार्ग चुना है, जहां कोई पदचिह्न नहीं, कोई अनुसरण नहीं, कुछ भी शेष नहीं, कोई संस्कार नहीं । जैसे आया वैसे गया । न स्मृति और न संस्कार |
हमने इस मार्ग पर चलने के लिए 'दर्शन' का संकल्प लिया है । हम देखें | आत्मा के द्वारा आत्मा को देखें । बड़ा विचित्र-सा लगता है । कौन देखने वाला और कौन दृश्य ! कौन देखे ? किसे देखे? बहुत बड़ा प्रश्न है । किन्तु जब हमारी देखने वाली चेतना, द्रष्टाचेतना खंडित होती है तब उसके दो खण्ड हो जाते हैं- एक देखने वाली चेतना और एक
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