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________________ शक्ति-जागरण के सूत्र . १२७ आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है, उस अन्तराल काल में उसके दो शरीर होते हैं-एक तेजस शरीर और दूसरा कार्मण -शरीर । इन दोनों शरीर के माध्यम से आत्मा अन्तराल की यात्रा करती है और अपने उत्पत्ति स्थान तक पहुंच जाती है । उत्पत्ति के पहले क्षण में आत्मा कर्मशरीर के द्वारा आहार ग्रहण करती है। उसे कर्मशास्त्रीय भाषा में ओज आहार कहते हैं और विज्ञान की भाषा में उसे ऊर्जा का आहार कह सकते हैं । हमारा जीवन तब तक रहता है जब तक ओज आहार है, ऊर्जा का आहार है । जब ओज आहार समाप्त हो गया, ऊर्जा समाप्त हो गई तो लाख उपाय करने पर भी जीवन टिकता नहीं, समाप्त हो जाता है। इसके बिना प्राणी जी नहीं सकता। यही है जीवनी शक्ति, जो जीवन को टिकाए रखती है। ओज आहार या ऊर्जा के आहार का संचय जीव पहले ही क्षण में पूरा कर लेता है। उसके पश्चात् स्थूल शरीर का निर्माण होता है। हमारे स्थूल शरीर का जितना विकास होता है, उसमें जितनी नाडियां बनती हैं, जितने चक्र और जितने प्रकार के संस्थान बनते हैं वे सबके सब संवादी हैं, मूल नहीं हैं। उनका मूल है कमशरीर में। कर्म शरीर में जितने स्रोत हैं, जितने शक्ति-विकास के केन्द्र हैं, जितने चैतन्य केन्द्र हैं, उनका संवादी है यह स्थूल शरीर । यदि किसी प्राणी के कर्मशरीर में एक इन्द्रिय का विकास है तो स्थूल शरीर की संरचना में केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय का ही विकास होगा, शेष इन्द्रियों का स्थान नहीं बनेगा। उनके केन्द्र नहीं बनेंगे। उनके गोलक निर्मित नहीं होंगे। न आंख का निर्माण होगा, न कान का निर्माण होगा, न नाक का निर्माण होगा और न जीभ का निर्माण होगा। यदि कर्मशरीर में दो इन्द्रियों का विकास है तो स्थूल शरीर में दो इन्द्रियों के संस्थान बनेंगे; यदि कर्मशरीर में पांच इन्द्रियों का विकास है तो स्थूल शरीर में पांचों इन्द्रियों के संस्थान बन जाएंगे और यदि मन का विकास है तो स्थूल शरीर में मस्तिष्क का निर्माण होगा। जिन जीवों में मन का विकास नहीं है, उनके पृष्ठरज्जु भी नहीं होता और मस्तिष्क भी नहीं होता । पृष्ठरज्जु और मस्तिष्क उन्हीं में होता है जिनमें मन का विकास होता है । इस प्रकार रचना का सारा उपक्रम सूक्ष्म शरीर के आधार पर होता है। इसीलिए हम यह कह सकते हैं कि सूक्ष्म शरीर है 'बिम्ब' और यह स्थूल शरीर है 'प्रतिबिम्ब' । सूक्ष्म शरीर है 'प्रमाण' और यह स्थूल शरीर है 'संवादी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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