________________
१०८
किसने कहा मन चंचल है लगता है। साधना की पहली निष्पत्ति है-आनन्द की अनुभूति । साधना का प्रारम्भ होता है-तेजोलेश्या से। तेजोलेश्या का पहला लक्षण हैआनन्द की अनुभूति । जैसे ही तैजस की विद्युत्धारा हमारे शरीर में प्रवाहित होती है, आनन्द की रश्मियां फूट पड़ती हैं । जितना आनन्द है, जितना सुख है, वह सब विद्युत्कृत है। तेजोलेश्या आती है तब सुख-स्रोत फूट पड़ते हैं । तेजोलेश्या से आनन्द, पद्मलेश्या से शान्ति और शुक्ललेश्या से निर्मलता, वीतरागता प्राप्त होती है ।
हमारा ध्येय है-मन की निर्मलता । हमारा ध्येय आनन्द की प्राप्ति नहीं है। आनन्द प्राप्त होगा, किन्तु वह ध्येय नहीं है। आनन्द हमारा आलंबन बनेगा। हमें आनन्द भी मिलेगा, शांति भी मिलेगी। किन्तु हमें इनको पारकर आगे जाना है। हमें पहुंचना है मन की निर्मलता तक । मन की निर्मलता-हमारी ध्येय-प्रतिमा है। यह हमारे सामने रहे।
ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व भावना करें। भावना का अर्थ है-कवच का निर्माण । हम हमारे चारों ओर अण्डाकार कवच का निर्माण करें। इससे बाहर का प्रभाव सक्रांत नहीं होगा । जो कुछ करना होगा वह सुचारु रूप से चलेगा। कोई बाधा नहीं आएगी। कवच का निर्माण कैसे हो-यह एक प्रश्न है साधक अपने स्थान पर बैठे और 'अहं' 'अहं' का मानसिक जाप करे और साथ-साथ यह कल्पना करे कि अहं की रश्मियां चारों ओर फैल रही हैं। वे सघन हो रही हैं। कवच का निर्माण हो रहा है । थोड़े समय बाद यह अनुभव होने लगेगा जैसे समूचे शरीर के बाहर दो-तीन फुट की दूरी तक एक कवच बन गया है। उसमें साधक सुरक्षित बैठा है। यह भावना-योग साधना का बहुत बड़ा आलंबन है। साधक इसका अभ्यास करे।
उपसंपदा के पांच संकल्पों का स्वीकार, ध्येय-प्रतिमा का निर्माण और भावना-योग अर्थात् कवच-निर्माण की प्रक्रिया का उपयोग-ये सब ध्यान-साधना की प्रारम्भिक तैयारियां हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org