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उपसंपदा
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भी ज्ञान होना चाहिए।
___उपसंपदा का पांचवां सूत्र है-मितभाषण या मौन । बोलना इसलिए जरूरी होता है कि हम जन-सम्पर्क में हैं। बोले बिना रहा नहीं जाता। किन्तु कम बोलना साधना है। मैं नहीं कहता कि जीवन-भर मौन रहें। अनावश्यक न बोलें। बोलना पड़े तो धीमे बोलें। हम रहस्यों को ढूंढ़ने के लिए साधना में प्रवृत्त हुए हैं। इसलिए बात भी अरहस्यमय क्यों ? रहस्य की भाषा बोलें, गुप्त भाषा बोलें। कान के पास धीरे से कुछ कहें।
भगवान का सारा व्यवहार 'अबहुभाषा' से ओतप्रोत था। वे अबहुभाषी थे। यह नहीं कहा गया कि भगवान् बोलते ही नहीं थे। यह कहा गया है कि भगवान बहुत नहीं बोलते थे। यह मध्यम मार्ग अच्छा है । इससे व्यवहार भी नहीं टूटता और शक्ति का अनावश्यक व्यय भी नहीं होता।
कुछ व्यक्ति मौन कर लेते हैं। मन में विचारों का तूफान उठता है। वे उसे रोक नहीं पाते। फिर पन्ने के पन्ने भर डालते हैं । यह कैसा मौन ! सारी शक्ति लिखने में खर्च कर डाली। मौन किसलिए । वे मौनी साधक इंगितों से सारी बात कर डालते हैं। एक मिनट की बात को वे इंगितों से पांच मिनट में समझा पाते हैं। शक्ति का कितना अपव्यय ! इससे तो अच्छा है बोलना। मित बोलना साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। इससे शक्ति संचित होती है।
प्रेक्षा-ध्यान की उपसंपदा के ये पांच सूत्र हैं। इनको हृदयंगम कर यदि हम साधना में प्रवृत्त होते हैं तो साधना सुखपूर्वक चल सकती है।
___ हम ध्यान का अभ्यास किसलिए करेंगे-इस ध्येय की प्रतिमा भी बहुत स्पष्ट होनी चाहिए । साधना के पहले दिन ही वह प्रतिमा स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठापित हो जानी चाहिए।
प्रेक्षा-ध्यान की साधना का पहला ध्येय है-मन को निर्मल बनाना। मन कषायों से मलिन रहता है। कषायों से मलिन मन में ज्ञान की धारा नहीं बह सकती। हमारे भीतर ज्ञान होते हुए भी वह प्रकट नहीं होता क्योंकि बीच में मलिन मन का पर्दा आ जाता है, अवरोध आ जाता है । मन की निर्मलता होते ही ज्ञान प्रकट होता है, उसका अवरोध समाप्त हो जाता है । वह पारदर्शी बन जाता है।
जब मन की निर्मलता होती है तब शांति का अनुभव स्वतः होने लगता है। मन का संतुलन, मन की समता और आनन्द का अनुभव होने
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