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किसने कहा मन चंचल है.
पूर्ण स्थान है साधना में। भोजन का प्रभाव केवल स्वास्थ्य पर ही नहीं होता, ध्यान और चेतना पर भी उसका प्रभाव होता है। आदमी अनावश्यक बहुत खाता है । इसके पीछे देशगत, परम्परागत, समाजगत या भोजन के ज्ञान का अभाव - कुछ भी कारण हो सकता है । यह चल रहा है । अनावश्यक भोजन विकृति पैदा करता है । खाया हुआ पच नहीं पाता क्योंकि उसको पचाने वाला रस पूरी मात्रा में नहीं मिलता । भोजन उतना ही पचता है जितना उसे पाचन रस प्राप्त होता है । शेष व्यर्थ हो जाता है। उससे अनेक विकृत्तियां पैदा होती हैं । उससे सड़ांध पैदा होती है । मल आंतों में जम जाता है । इससे सारा नाड़ी मंडल दूषित हो जाता है । । इससे मन और विचार भी दूषित होते हैं । आदमी स्वस्थ चितन नही कर पाता । चेतना पर आवरण आता चला जाता है। हम यह प्रयत्न करते हैं कि हमारी चेतना की निर्मलता हो, मन की निर्मलता हो, शक्ति का जागरण हो । यह तभी संभव है जब हमारा नाड़ी संस्थान शुद्ध होता है, निर्मल होता है । जब कांच साफ होगा तब ही उसमें निर्मल प्रतिबिम्ब पड़ेगा, उससे प्रकाश बाहर आएगा । जब नाड़ी साफ नहीं, नाड़ी संस्थान निर्मल नहीं,. उसके बिना हमारी चेतना का प्रकाश बाहर कैसे आएगा ? कोई रास्ता नही है दूसरा । वह प्रकाश भीतर ही भीतर दबा रह जाएगा, विकसित नहीं हो
पाएगा ।
जिस व्यक्ति को केवल जीभ का स्वाद लेना है, वह भोजन के प्रति अ-जागरूक रह सकता है । जो व्यक्ति अपने मन और मस्तिष्क को विकृत रखना चाहता है, वही भोजन के प्रति लापरवाह रह सकता है । उसको केवल अपनी जीभ को ही संतुष्ट करना होता है । जिस व्यक्ति का यह ध्येय हो कि मस्तिष्क को बहुत काम में लेना है, सुप्त शक्तियों को जागृत करना है, शक्तियों से काम लेना है, कोई-न-कोई बड़ा काम कर दिखाना है, वह व्यक्ति खाने के प्रति कभी लापरवाह नहीं हो सकता । स्वाद उसके लिए गौण है । वह भोजन करता है केवल शरीर के पोषण के लिए, स्वाद के लिए कभी नहीं खाता ।
साधक ने एक विशिष्ट मार्ग पर चलने के लिए कदम बढ़ाए हैं । उसका ध्येय है - शक्तियों को इसलिए साधक को भोजन का
जीभ को संतोष देना उसका ध्येय नहीं है । जागृत करना, गति करना, उपलब्धि करना ।
पूरा ज्ञान होना चाहिए और कौन सा भोजन क्या परिणाम लाता है, उसका
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