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सत्य की खोज
देखो । परिणाम को देखो। क्रोध का परिणाम है-दुःख । दुःख को देखो। सुख को भी देखो । सुख के स्पंदनों को देखो। दुःख के स्पंदनों को देखो । जो भी अच्छा या बुरा है, उसे देखो। श्वास को देखो। शरीर को देखो । समत्व को देखो। तटस्थता को देखो। अनन्यदर्शी को देखो। उसको देखो जहां दूसरा कोई नहीं हैं । चेतना के उस शुद्ध स्वभाव को देखो जहां जाननेदेखने के सिवाय कुछ भी नहीं है। वही परम दर्शन है। उसके आगे कुछ भी नहीं है । देखने में यह भेदरेखा मत खींचो कि इसे देखूगा और उसे नहीं देखेंगा । अच्छे को देखंगा, बुरे को नहीं देखंगा। देखने के क्षेत्र में अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं होता। ये विकल्प होते हैं - सोचने-विचारने के क्षेत्र में । जो भी आए देखते रहो । देखते-देखते वह बिन्दु आ जाएगा जहां आगे देखना शेष नहीं है । परम आ जाएगा। जहां हमारी यात्रा की सम्पन्नता होगी । अनन्य आ जाएगा । तब हम अपने शुद्ध चैतन्य के अनुभव में, ज्ञान और दर्शन की समग्रता में पहुंच जाएंगे। वहां केवल जानना-देखना ही रहेगा और सब समाप्त । यह यात्रा का अन्तिम बिन्दु है । यहां यात्रा संपन्न हो जाती है।
देखने के अभ्यास के बिना जागरण फलित नहीं होता, अप्रमाद फलित नहीं होता । अप्रमाद और जागति हमारी बुद्धि की पटुता को बढ़ाती है, स्मृति की पटुता को बढ़ाती है, विवेक-चेतना को स्पष्ट करती है। इन सबके मूल में काम करता है देखना । इसीलिए हम सही रूप से देखने का प्रयत्न करें और साथ-साथ अनुप्रेक्षा भी करें।
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