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________________ ६२ किसने कहा मन चंचल है आंख खोलकर देखना, आंख मूंदकर देखना, अधखुली आंख से देखना-प्रेक्षा की ये तीन पद्धतियां हैं। देखना है वहां विचारना नहीं है और विचारना है वहां देखना नहीं है। देखने की तीन बातें हैं-मृद्, मध्य और अधि । देखना तरल है, मृदु है तो देखने के साथ-साथ चिन्तन भी चलेगा। यदि देखना थोड़ा सघन होता है, मध्य होता है तो विचार कम आएंगे। देखना अधिक चलेगा, विचार कम चलेंगे । जब देखना 'अधि' अत्यन्त सघन हो जाएगा तब विचार समाप्त हो जाएंगे। वहां केवल देखना ही शेष रहेगा। इस अवस्था में दो साथ नहीं चल सकते । केवल एक देखना ही रहेगा। देखना सघन होना चाहिए। विकल्पों को समाप्त करने का यही एकमात्र साधन है। एक व्यक्ति ने कहा-'सर्दी लग रही है। ठिठुर रहा हूं।' दूसरे ने कहा-'जाओ, कपड़ा ओढ़ लो।' वह घर में गया और मलमल की चादर ओढ़ आया । आकर बोला-'कपड़ा ओढ़ लिया फिर भी ठंड लग रही है।' उसने कहा-'भले आदमी ! मैंने कपड़ा ओढ़ने के लिए कहा था। इस ठिठुरन से बचने के लिए कैसा कपड़ा ओढ़ना है, यह विवेक तो तुम्हें होना ही चाहिए । मलमल से ठंड नहीं रुकती । वह रुकती है मोटे कपड़े से, ऊनी कपड़े से । जब तक मोटा कपड़ा या ऊनी कपड़ा नहीं ओढ़ा जाएगा, ठंड रुकेगी नहीं।' यही बात देखने के विषय में है। देखना भी चल रहा है और विचार भी चल रहा है, यह नहीं होना चाहिए । देखने में केवल देखना ही चले। यह तभी संभव है जब देखना सघन हो । ठंड का रुकना तभी संभव है जब मोटा कपड़ा ओढ़ा जाए। प्रश्न होता है कि किसे देखें ? क्या देखें ? अच्छा-बुरा जो भी आए उसे देखें। क्रोध आए तो उसे भी देखो। मान आए तो उसे भी देखो। वास्तव में जो क्रोध को देखता है, वही मान को देखता है। क्रोध हमारी सबसे स्थूल वृत्ति है। यह सबके समक्ष प्रत्यक्ष होती है। मान छिपा रहता है। प्रकट कम होता है क्रोध तत्काल प्रकट हो जाता है। क्रोध को देखो, मन को देखो। इसका पूरा चक्र है । देखते-देखते दुःख तक चले जाओ । दुःख को देखना प्रारंभ करो । अपायों को देखो, हेतुओं को देखो। आतंक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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