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सत्य की खोज
बिना व्याप्ति नहीं बनती । व्याप्ति प्रत्यक्षमूलक होती है, परोक्षमूलक नहीं ।" ज्ञान की सारी धारा प्रत्यक्ष से प्रवाहित होती है, परोक्ष से नहीं ।
शरीर की प्रेक्षा । शरीर में क्या-क्या घटित हो रहा है, उसे देखें । प्रत्येक क्षण शरीर में कुछ-न-कुछ घटित होता ही है । उसे देखें । उसकी विपश्यना करें, प्रेक्षा करें । सत्य समझ में आने लगेगा | जब भीतर का सत्य स्पष्ट होगा तो बाहर का सत्य छिपा नहीं रह पाएगा ।
देखने के साथ यह प्रश्न होता है कि कैसे देखें ? देखने की प्रक्रिया क्या है ?
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प्रेक्षा तीन प्रकार से की जा सकती है-खुली आंखों से आंखें बंद रखकर और अधखुली आंखों से ।
देखने का एक स्रोत है-आंख । आंख बंद करके भी प्रेक्षा की जा सकती है । आंख बंद कर दी । भीतर के दर्शन की शक्ति को उद्घाटित कर दिया । एक स्रोत खोल दिया जो आंख से भी बड़ा है । दर्शन की शक्ति को हमने खोल दिया और देखना प्रारंभ कर दिया। आंख बंद करके भी देखा जा सकता है और बहुत गहराई तक देखा जा सकता है । जो खुली आंखों से दिखाई नहीं देता वह आंखें बंद कर देने पर प्रज्ञा से देखा जा सकता है ।
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खुली आंखों से भी देखा जा सकता है । यह अनिमेष प्रेक्षा है । अपलक आंखें, स्थिर आंखें । पलक नहीं झपकना है । अनिमेष प्रेक्षा से भी वस्तु के अन्तस्तल तक पहुंचा जा सकता है । अनिमेष प्रेक्षा प्रारंभ की। सामने एक चेहरा है । उसे देखना प्रारंभ किया । आधा घंटा देखते रहे । चेहरे के हजारों रूप सामने आएंगे। अंत में एक ज्योतिपुंज-सा दीखने लगेगा | प्रकाशपुंज सामने रहेगा । यह अनुभव की बात है, सुनी-सुनाई बात नहीं है ।
प्रेक्षा का तीसरा प्रकार है-अधखुली आंखों से देखना । इसका केन्द्र बिन्दु होता है -- अपना ही नासाग्र । जालंधर बंध कर अपने ही नासाग्र को देखना प्रारंभ करें। आधा घंटा तक प्रयोग करने पर आपको विचित्र - सा अनुभव होगा । नासाग्र जो मात्र चमड़ी का एक टुकड़ा था, वह भी कितना ज्योतिर्मय है - यह तभी ज्ञात होगा ।
प्रकाशमय,
जब हम देखते हैं तब अनेक नए-नए पर्याय सामने आते हैं, नए-नएअनुभव होते हैं ।
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