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प्रवचन 8
संकलिका
• से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे । ]आयारो, १५०] ० केवल वही मुनि अपने पथ पर आरूढ़ रहता है जो विषय-लोक
और हिंसा-लोक को भिन्न दृष्टि से देखता है, लोक-प्रवाह की
दृष्टि से नहीं देखता। .. अध्यात्म चेतना के जागरण का प्रयत्न गुरुतर दायित्व । • अध्यात्म चेतना नहीं जागती तब सब दोष दूसरों पर ।
उसके जागने पर सारा दायित्व अपने पर । अध्यात्म की साधना से प्रज्ञा जागती है। प्रज्ञा जागती है तब भ्रान्तियां टूटती हैं, सत्य उपलब्ध होता है । • सुख-दुःख का दायित्व स्वयं पर है। ० सुख भीतर भी है और वह अधिक महत्त्वपूर्ण है। • शान्ति भीतर भी है। • स्वास्थ्य भीतर भी है। • दीर्घायु की कुंजी अपने हाथ में है ।
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