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सत्य की खोज
है कि अन्तिम कदम मंजिल को छू लेता है ।
श्वास को देखना आत्म-साक्षात्कार की मंजिल तक पहुंचने का पहला कदम है। जिस सत्य की दिशा में जाना है, उसी दिशा का यह पहला चरण है । श्वास को देखने का अर्थ है-दर्शन की बात पर आ जाना। यहां सोचना छूट जाता है। केवल देखना शेष रहता है। यही दिशा है । देखना शुरू करते ही विचारों पर, विकल्पों पर प्रहार होने लग जाता है । वे बेचारे टूटने लगते हैं। विकल्पों से हट कर अविकल्प पर और चिन्तन से हटकर अचिन्तन पर कदम बढ़ने लगते हैं । यह हमारा पहला प्रस्थान होता है।
हमारे जानने और देखने की यात्रा का, आत्मा के शुद्ध स्वरूप की यात्रा का पहला प्रस्थान है—श्वास-दर्शन । दूसरा प्रस्थान है-शरीर-दर्शन, शरीर-प्रेक्षा।
शरीर को देखना । यह बात बड़ी विचित्र लगती है कि जिस शरीर में हम जी रहे हैं, जो हमारा सबसे निकट का मित्र है, उसे हम क्या देखें? उसके भीतर क्या देखें ? ये प्रश्न तभी होते हैं जब तक हम देखना प्रारंभ नहीं करते । देखना प्रारंभ करते ही सारे प्रश्न समाहित हो जाते हैं । शरीर में बहुत कुछ है देखने को। देखते रहें। कभी पूरा नहीं होता। प्रतिदिन नए-नए अनुभव होते रहेंगे । फिर लगेगा कि शरीर में इतना है देखने को कि वह कभी पूरा ही नहीं होता। बीमारी का पता लगाने के लिए चिकित्सक भी तो शरीर के भीतर ही देखता है। जो चिकित्सक जितनी अधिक निपुणता और सूक्ष्मता से शरीर के भीतर देख पाता है, वही बीमारी का सही निदान कर सकता है। चिकित्सक नब्ज पर अपनी अंगुलियां टिकाता है । नाड़ी की धड़कन को वह पकड़ता है। अन्यान्य सूक्ष्म उपकरणों से वह शरीर में होने वाली चंचलताओं को पकड़ता है, सूक्ष्म स्पंदनों को पकड़ने का प्रयत्न करता है और फिर उन स्पंदनों के आधार पर बीमारी के मूल को पकड़कर निदान प्रस्तुत करता है। वह सारे शरीर को देख जाता है। उसे पता लग जाता है कि शरीर में क्या घटित हो रहा है। केवल 'चिंतन के आधार पर ऐसा नहीं हो सकता । चिकित्सक देखने की गहराई में जाकर ही सूक्ष्मतम कारणों को पकड़ पाता है । देखने की गहराई में चाहे वह उपकरणों के माध्यम से ही क्यों न जाए, यह बात दूसरी है। बिना गहराई में गए, जो पाना होता है वह नहीं पाया जाता । ध्यान के द्वारा भी गहराई में जाया जा सकता है और उपकरणों के माध्यम से भी गहराई में
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