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किसने कहा मन चंचल हैं
तीसरे ने उनको भी काट डाला । तर्कवाद बढ़ता ही गया। खंडन-मंडन का कहीं अन्त ही नहीं आया । जानने-देखने की बात छूटी और सोचने-विचारने का क्रम बढ़ा । उसके साथ-साथ शत्रुता का भाव पनपा। जहां सत्य को खोजने की बात है वहां मैत्री ही होगी, शत्रुता नहीं होगी। शत्रुता तब होती है जब सत्य की खोज नहीं होती, सत्य की काट-छांट होती है। चितन-मनन सत्य की खोज के साधन नहीं हैं । वे सत्य को तोड़ने-मरोड़ने के साधन हैं । ये साधन जिसके पास अधिक होते हैं, वह विश्वविजेता बन जाता है। जो इन साधनों से शून्य है, वह पराजित हो जाता है।
मध्यकालीन दार्शनिक ग्रन्थों में जय-पराजय का एक चक्र मिलेगा, व्यवस्था मिलेगी। सत्य की खोज वहां दृष्टिगोचर नहीं होगी। सत्य की खोज और जय-पराजय की बात का कोई मेल नहीं है। सत्ता के प्रश्न में जय-पराजय की बात समझ में आ सकती है। भौतिक पदार्थों की छीनाझपटी में जय-पराजय की बात समझ में आ सकती है। किन्तु जहां केवल सत्य का निरूपण हो, सत्य की खोज हो, वहां कैसी जय और कैसी पराजय ? दर्शन का मूल अर्थ था-देखना । दर्शन तो छूट गया और तर्कशास्त्र दर्शन बन गया । अनुमान दर्शन बन गया। परोक्ष दर्शन बन गया। कहां प्रत्यक्ष और कहां परोक्ष ? कहां साक्षात्कार और कहां अनुमान ? इसी दर्शन ने सारे विवादों को जन्म दिया। यह बुद्धि के सहारे चलने वाला दर्शन था। बुद्धि के द्वारा प्रस्थापित किए गए विवाद कभी समाप्त नहीं हो सकते । ये विवाद तभी समाप्त हो सकते हैं जब यथार्थ दर्शन शुरू होता है। विवाद तभी समाप्त होते हैं जब अध्यात्म की चेतना जागृत होती है, जब देखना प्रारंभ होता है।
श्वास को देखना अध्यात्म की दिशा का पहला चरण है। पहला चरण मूल्यवान् होता है। सही दिशा में उठाया गया पहला कदम मंजिल तक पहुंचाने वाले असंख्य कदमों की शृंखला का एक अंश होता है। वही मंजिल का आदि कदम है । मूल्य इस बात का नहीं है कि आदमी कितना चलता है । मूल्य इस बात का होता है कि उसका चलना किस दिशा में हो रहा है। वह सही दिशा में चल रहा है या विपरीत दिशा में चल रहा है ? विपरीत दिशा भटकाती है । मंजिल तक कभी नहीं पहुंचा पाती। उसकी
ओर बढ़ने वाले हजारों-लाखों कदम भी भटक जाएंगे। सही दिशा में उठाया गया एक-एक कदम मंजिल की दूरी कम करता है । एक दिन ऐसा आता
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