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सत्य की खोज
गुण-विशेष ही विभाजक रेखा है । वह एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक् करता है। यदि यह विभाजक रेखा न हो तो द्रव्यों को विभाजित नहीं किया जा सकता। उनकी संख्या नहीं हो सकती। आत्मा का विशेष गुण है-चैतन्य । यह विभाजक रेखा है। यह गुण आत्मा में ही मिलता है, दूसरे द्रव्यों में नहीं । यदि यह सामान्य गुण होता, आत्मा में भी मिलता और दूसरे द्रव्यों में भी मिलता, पुद्गल में भी मिलता तो आत्मा के नाम के द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व प्रस्थापित नहीं किया जा सकता। आत्मा नाम के द्रव्य की स्वतंत्र प्रस्थापना तभी की जा सकती है जब उसमें कोई स्वतंत्र गुण हो, विशिष्ट गुण हो, विभाजक गुण हो । चैतन्य गुण आत्मा में ही है। दूसरे द्रव्य में नहीं है । इसलिए आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है।
चेतना का मूल स्वभाव है-~जानना और देखना। ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव । इन्हें हम एक भी कह सकते हैं और दो भी कह सकते हैं । कोई अन्तर नहीं आता। हम जब अपने अस्तित्व में होते हैं, आत्मा की सनिधि में होते हैं तब केवल जानना और देखना-दो ही बातें घटित होती हैं। किन्तु जब बाहर आते हैं, अपने केन्द्र से हटकर परिधि में आते हैं तब साथ में और कुछ जुड़ जाता है, मिश्रण हो जाता है। इसे पुनः शुद्ध कर पाना कठिन हो जाता है । मिश्रीकरण सरल होता है, शुद्धीकरण कठिन होता है। पुद्गलों का मिश्रण होते ही जानना, देखना छूट जाता है। राग-द्वेष की धारा मिलते ही जानना, देखना छूट जाता है। शेष रहता है-सोचना, विचारना, चिंतन करना, मनन करना । आज की दुनिया में वह आदमी बड़ा माना जाता है जो अच्छा सोच सकता है, चिंतन कर सकता है, मनन कर सकता है, सलाह दे सकता है । उस आदमी को पहचाना ही नहीं जा सकता जो केवल जानता-देखता है, जो केवल ज्ञाता-द्रष्टा है। जो अपने घर में है, जो आत्मा की सन्निधि में है, उसको कौन पूछे ? इस दुनिया में जो कुछ घटित होता है वह परिधि में घटित होता है। इसका परिणाम यह हुआ कि जहां सोचने-विचारने का प्रश्न आया वहां 'अस्थि सत्थं परण परं'-एक शास्त्र को काटने के लिए दूसरा शस्त्र तैयार हुआ और दूसरे शस्त्र को निस्तेज करने के लिए तीसरा शस्त्र आया और शस्त्रों की यह परंपरा आगे से आगे चलती गई। उसे कहीं विराम ही नहीं मिला। यही सोचने पर घटित होता है । एक ने इतना सोचा तो दूसरे ने उससे आगे सोचा पहले ने जो तर्क दिए, दूसरे ने उन सबको काट डाला । नए तर्क सामने आ गए।
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