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व्यावहारिक दृष्टि से ही सत्य है ।
शंकर ने कर्म-बन्धन के कारणों के रूप में अविद्या को प्रमुख कारण माना है, जबकि जैनदर्शन में अविद्या के साथ-साथ अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग को कर्म - बन्धन का कारण माना गया है। अद्वैत वेदान्त में बन्धन और मोक्ष को व्यावहारिक दृष्टि से सत्य माना गया है, पारमार्थिक दृष्टि से उसे अवास्तविक और मिथ्या माना गया है, जबकि जैनदर्शन में आत्मा के बन्धन और मोक्ष को मिथ्या या अवास्तविक न मानकर सत्य माना है ।
बौद्ध-दर्शन
I
जीवलोक की विचित्रता ईश्वरकृत नहीं है । कोई ईश्वर नहीं है, जिसने बुद्धिपूर्वक इसकी संरचना की हो। जैन दर्शन के समान बौद्ध दर्शन ने भी लोकवैचित्र्य को कर्मकृत माना है ।२६ लोकवैचित्र्य सत्वों के कर्म से उत्पन्न होता है । कर्म दो प्रकार के हैं - चेतना और चेतयित्वा । ७ चेतना मानस कर्म है। चेतना से जो उत्पन्न होता है, वह चेतयित्वा कर्म है अर्थात् चेतयित्वा कर्म चेतनाकृत है | चेतयित्वा कर्म दो हैं-कायिक और वाचिक । इन तीन प्रकार के कर्मों की सिद्धि आश्रय, स्वभाव और समुत्थान- इन तीन कारणों से होती है । यदि हम आश्रय का विचार करते हैं तो एक ही कर्म ठहरता है, क्योंकि सभी कर्म काय पर आश्रित है। यदि हम स्वभाव का विचार करते हैं तो वाक्कर्म ही एक कर्म है, अन्य दो का कर्मत्व नहीं है, क्योंकि काय, वाक् और मन - इन तीन में से केवल वाक् स्वभावतः कर्म है । यदि हम समुत्थान का विचार करते हैं, तो केवल मनस् कर्म है, क्योंकि सब कर्मों का समुत्थान मन से है । २६
कर्म के दो अन्य भेद भी बौद्धों में उपलब्ध होते हैं - विज्ञप्ति कर्म अर्थात् काय, वाक् द्वारा चित्त की अभिव्यक्ति और अविज्ञप्ति कर्म अर्थात् विज्ञप्ति से उत्पन्न कुशल - अकुशल कर्म ।
'विशुद्धिमग्ग' में कर्म को अरूपी कहा गया है पर 'अभिधर्मकोश' में उसे अविज्ञप्ति अर्थात् रूपी व अप्रतिपद्य माना गया है। सौत्रान्तिक दर्शन कर्म को अरूपी मान कर जैन- दर्शन के समान उसे सूक्ष्म मानता है । बौद्ध दर्शन में कर्म को मानसिक, वाचिक और कायिक मानकर उसे विज्ञप्ति रूप कहा है। उन्हें 'संस्कार' भी कहा जाता है । वे वासना और अविज्ञप्ति रूप भी है । मानसिक संस्कार 'वासना' कहलाता है और वाचिक तथा कायिक संस्कार 'अविज्ञप्ति' माना जाता है। ये दोनों विज्ञप्ति और अविज्ञप्ति कर्म - भावों के अनुसार शुभ और अशुभ
८० व्रात्य दर्शन
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