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के विपाक से तुलनीय है। इसी क्रम में योग-दर्शन के आयु विपाक की तुलना जैन-दर्शन के आयुकर्म के विपाक से की जा सकती है। योग-दर्शन के आयुविपाक कर्म को दो प्रकार का माना गया है-सोपक्रम एवं निरूपक्रम । योग-दर्शन में भोग के तीन अर्थ बताये गये हैं-सुख-दुःख और मोह ।२१ अतः जैन सम्मत वेदनीय कर्म, योग-दर्शन के भोग विपाक से सहज ही तुलनीय है। योग-दर्शन में भोग के अर्थ में लिया गया मोह शब्द जैन सम्मत मोहनीय कर्म के विपाक के सदृश है। पातंजल योग-दर्शन एवं उसके भाष्य में प्रकाशावरण एवं विवेक ज्ञानावरणीय कर्म का उल्लेख हुआ है, उसकी तुलना जैन सम्मत ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म से की जा सकती है। जैन दर्शन में कर्म विपाक की नियतता एवं अनियतता दोनों को ही स्वीकार किया गया है। योगदर्शन में कर्माशय को नियत विपाकी अनियत विपाकी उभयविद माना है।३ योग-दर्शन में कर्म विपाक की अनियतता पर अधिक बल दिया गया है। इसमें यह स्पष्ट किया है कि पूर्वजन्मीय पापराशि वर्तमान जन्म के पुण्य के प्रभाव से बिना विपाक दिये हुए ही नष्ट हो जाती
है।२४
अन्य दार्शनिक जिसे संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य, शक्ति कहते हैं, उसे मीमांसक अपूर्वशब्द के प्रयोग से व्यक्त करते हैं। परन्तु वे यह अवश्य मानते हैं कि वेद विहित कर्म से जिस संस्कार अथवा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, उसी को अपूर्व कहना चाहिए, अन्य कर्मजन्य संस्कार अपूर्व नहीं है।२५
कर्मफल की व्याख्या में पूर्वमीमांसा अपूर्व या अदृष्ट शक्ति को माध्यम बनाता है, जबकि जैनदर्शन कर्म को ही सीधे फल देने में सक्षम मानता है। जैनदर्शन
और पूर्वमीमांसा दोनों ही कर्मफल की व्यवस्था के लिए ईश्वर को माध्यम के रूप में स्वीकार नहीं करते। परन्तु जहां पूर्वमीमांसा 'अपूर्व' के माध्यम से कर्मफल की व्यवस्था मानती है, वहां जैनदर्शन कर्म वर्गणाओं में स्वतः फल प्रदान करने की शक्ति मानता है। अद्वैत वेदान्त ____ अद्वैत वेदान्त में बन्धन और मोक्ष संबंधित विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार बन्धन का मूल कारण अविद्या या अज्ञान है। अविद्या आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है, बल्कि जीव की मिथ्या कल्पना का परिणाम है। पारमार्थिक सत्य तो यह है कि जीव न कभी बन्धन में पड़ता है और न कभी मोक्ष को प्राप्त करता है। शंकर कहते हैं कि बन्धन और मोक्ष दोनों केवल
व्रात्य दर्शन - ७६
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