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दोनों प्रकार के होते हैं। जैन धर्म के द्रव्य कर्म और भाव-कर्म की तुलना किसी सीमा तक इनसे की जा सकती है। वासना और अविज्ञप्ति कर्म जैन धर्म का द्रव्य-कर्म और संस्कार तथा विज्ञप्ति-कर्म जैन धर्म का भावकर्म माना जा सकता है। विज्ञप्तिवादी बौद्ध कर्म को वासना के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रज्ञाकर गुप्त के अनुसार सारे कार्य वासनाजन्य होते हैं। शून्यवादी बौद्ध-दर्शन में वासना का स्थान माया या अविद्या को दिया गया है। जैन-दर्शन के सदृश ही बौद्ध-दर्शन ने भी लोभ, द्वेष और मोह को कर्म की उत्पत्ति का कारण स्वीकार किया है। राग-द्वेष और मोहयुक्त होकर प्राणी-सत्व, मन, वचन, काय की प्रवृत्तियां करता है और राग, द्वेष, मोह को उत्पन्न करता है। इस प्रकार संसार-चक्र चलता रहता है। इस चक्र का कोई आदिकाल नहीं, यह अनादि है।३१
जैन एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों में कर्म विपाक की नियतता एवं अनियतता दोनों को समान रूप से स्वीकृत किया गया है। कुछ कर्म नियत-विपाकी होते हैं और कुछ अनियत विपाकी होते हैं। जहां जैन-दर्शन में कर्म की अवस्थाएं यथा-उदीरणा, अपवर्तना, उद्वर्तना एवं संक्रमण कर्मविपाक की अनियतता को
और निकाचना कर्म-विपाक की नियतता को सूचित करते हैं, वहीं बौद्ध-दर्शन में दृष्टधर्मवेदनीय नियत-विपाक कर्म, उपपद्य-वेदनीय नियत विपाककर्म, दृष्टधर्म वेदनीय अनियत विपाक-कर्म, उपपद्य-वेदनीय अनियत विपाककर्म तथा अपरपर्यायवेदनीय अनियत विपाक कर्म आदि क्रमशः कर्म विपाक की नियतता एवं अनियतता पर प्रकाश डालते हैं ।३२
ईसाई मत
यद्यपि यह माना जाता है कि ईसाई एवं इस्लाम धर्म में कर्म की अवधारणा नहीं है किन्तु कुछ विद्वानों की मान्यता है कि उन धर्मों में भी किसी न किसी रूप में कर्म की अवधारणा है। ईसाई धर्म में कर्म के तत्त्वों को उल्लेखित करते हुए डॉ. ए. बी. शिवाजी ने लिखा-मसोही धर्म में कर्म को मान्यता दी है। जैसा कि पौलुस लिखता है-'वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा।३३ नये नियम में ही एक अन्य स्थान पर पौलुस लिखता है-'धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा।'३४ अर्थात् कर्म मनुष्य करता है और कर्म का न्याय कोई अदृष्ट शक्ति करती है, जिसको परमेश्वर, ईश्वर या भगवान कहते हैं। जैन धर्म और वौद्ध धर्म में तो ईश्वर को भी मान्यता प्राप्त नहीं है। इस कारण मनुष्य ही अपने कर्मों को स्वतन्त्र
व्रात्य दर्शन - १
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