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________________ रूप से करता है और उसके परिणामों को भोगता है, किन्तु मसोही धर्म में कर्म के साथ विश्वास और ईश्वर के अनुग्रह को, जो प्रभु यीशु मसीह के द्वारा प्राप्त होता है, मान्यता दी गई है।३५ इस्लाम मत इस्लाम धर्म में कर्म के सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए डॉ. निजामुद्दीन कहते हैं- 'इस्लाम धर्म संयम से जीवन व्यतीत करने का मार्ग प्रशस्त करता है। इस लोक के साथ परलोक पर भी उसकी दृष्टि रहती है और परलोक को इहलोक पर प्राथमिकता देता है। मनुष्य कर्म करने में पूर्णतः स्वतन्त्र है, उसे अपने कर्मों का फल भी निश्चित रूप से भोगना है और 'रोजे-मशहर' में 'अन्तिम निर्णय' के दिन अल्लाह के दरबार में हाज़िर होकर अपने कर्मों का हिसाब देना होता है। जो व्यक्ति सत्कर्म करेगा, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बशर्ते कि वह मोमिन ही, उसे हम संसार में पवित्र जीवन व्यतीत करायेंगे और परलोक में ऐसे व्यक्तियों को उनके प्रतिकार, पुण्य, उत्तम कर्मों के अनुसार प्रदान किये जायेंगे।३६ जैसा कर्म वैसा फल मिलेगा। स्वर्ग और नरक का निर्णय लोगों के हक में कर्मों के आधार पर ही होगा। कुरान में यह उद्घोष प्राप्त होता है कि-'ए पैगम्बर। खुशखबरी सुना दीजिए उन लोगों को जो ईमान लाए और काम किये अच्छे, इस बात की कि निःसन्देह उनके लिए जन्नतें (स्वर्ग) हैं, जिनके नीचे नहरें बहती हैं।३७ विभिन्न दर्शनों में कर्म के प्रकार दार्शनिकों ने विविध प्रकार से कर्म के भेद किए हैं परन्तु पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल, शुभ-अशुभ, धर्म-अधर्म रूप भेद सभी को मान्य हैं। कर्म के पुण्य-पाप अथवा शुभ-अशुभ भेद प्राचीन हैं। कर्म-विचारणा के प्रारम्भिक काल में ही इनका उदय हो गया होगा। प्राणी जिस कर्म के फल को अनुकूल अनुभव करता है, वह पुण्य और जिसके फल को प्रतिकूल समझता है, वह पाप। इस प्रकार के भेद उपनिषद, जैन, सांख्य, बौद्ध, योग२, न्याय-वैशेषिक३–इन सब दर्शनों में दृष्टिगोचर होते हैं। फिर भी वस्तुतः दर्शनों ने पुण्य एवं पाप-इन दोनों कर्मों को बंधन ही माना है और दोनों से मुक्त होना अपना ध्येय निश्चित किया है। अतः विवेकशील व्यक्ति कर्मजन्य अनुकूल वेदना को भी सुख रूप न मानकर दुःख रूप ही स्वीकार करते हैं। कर्म के पुण्य-पाप रूप दो भेद वेदना की दृष्टि से किए गए हैं, किन्तु वेदना ८२ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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