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के अतिरिक्त अन्य दृष्टियों से भी कर्म के भेद किए जाते हैं। कर्म को अच्छा और बुरा समझने की दृष्टि को सम्मुख रखकर बौद्ध और योगदर्शन में कृष्ण, शुक्ल, शुक्ल-कृष्ण तथा अशुक्लाकृष्ण नामक चार भेद किए गए हैं। कृष्ण पाप हैं, शुक्ल पुण्य, शुक्ल-कृष्ण पुण्य-पाप का मिश्रण और अशुक्लाकृष्ण दोनों में से कोई भी नहीं क्योंकि यह कर्म वीतराग पुरुषों का ही होता है। इसका विपाक न सुख है और न ही दुःख। कारण यह है कि उनमें राग-द्वेष नहीं होता।४५
इसके अतिरिक्त कृत्य, पाकदान और पाककाल की दृष्टि से भी कर्म के भेद किए गए हैं। बौद्धों के अभिधर्म और विशुद्धिमग्ग में समान रूप से कृत्य की दृष्टि से चार, पाकदान की दृष्टि से चार और पाककाल की दृष्टि से चार-कुल बारह प्रकार के कर्मों का वर्णन हैं.६ किन्तु अभिधर्म में पाकस्थान की दृष्टि से चार भेद अधिक प्रतिपादित किए गए हैं। योग-दर्शन में भी इन दृष्टियों के आधार पर कर्म सम्बन्धी सामान्य विचारणा है, किन्तु गणना बौद्धों से भिन्न है।४७ ।
कर्मसिद्धान्त पर तुलनात्मक दृष्टि से विमर्श करने से यह स्पष्ट हो गया है कि प्रायः सभी भारतीय चिंतकों ने कर्म की अवधारणा पर व्यापक विमर्श किया है, जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त पर विशेष एवं विस्तृत विचार किया गया है। जैन साहित्य का बहुलांश कर्म की चर्चा से परिव्याप्त है। संदर्भ
१. न्यायभाष्य : १/१/२ २. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ४७ ३. योग-दर्शन भाष्य १/५ ४. (क) शाबरभाष्य, २/१/५
(ख) तन्त्रवार्तिक, २/१/५ ५. शांकर भाष्य २/१/१४ ६. वही ३/२/३८-४१ ७. (क) अंगुत्तर निकाय ३/३३/१
(ख) संयुक्त निकाय १५/५/६ ८ (क) न्यायसूत्र ४/१/५-६
(ख) स कर्मजन्य संस्कारो धर्माधर्मगिरोच्यते। ६. न्यायवार्तिक ३/२/६८ १०. प्रशस्तपाद भाष्य, पृ. ४७
व्रात्य दर्शन - ३
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