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जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक-दर्शन ही ऐसा है, जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है, क्योंकि वह आत्मा का त्रैकालिक अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करता। आत्मत्रैकालिकता के अभाव में कर्म-सिद्धान्त का कोई प्रयोजन ही नहीं होता।
कर्म की अवधारणा
न्याय-दर्शन के अभिमतानुसार राग, द्वेष और मोह-इन तीन दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय की प्रवृत्तियां होती हैं और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है। ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं।'
__ वैशेषिक-दर्शन में चौबीस गुण माने जाते हैं, उनमें एक अदृष्ट भी है। यह गुण संस्कार से पृथक् है और धर्म-अधर्म ये दोनों उसके भेद हैं। इस तरह न्याय-दर्शन में धर्म, अधर्म का समावेश संस्कार में किया गया है। उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिक-दर्शन में अदृष्ट के अन्तर्गत लिया गया है। राग आदि दोषों से संस्कार होता है, संस्कार के जन्म, जन्म से राग आदि दोष और उन दोषों से पुनः संस्कार उत्पन्न होते हैं। इस तरह जीवों की संसार-परम्परा बीजांकुरवत् अनादि है।
सांख्य-योगदर्शन अभिमतानुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है। प्रस्तुत क्लिष्टवृत्ति से धर्माधर्म रूप संस्कार पैदा होता है। संस्कार को इस वर्णन में बीजांकुरवत् अनादि माना
मीमांसा-दर्शन का अभिमत है कि मानव द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है और वह अपूर्व ही सभी कर्मों का फल देता है, अर्थात् वेद द्वारा प्ररूपित कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति का नाम अपूर्व है। वहां पर अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य को अपूर्व नहीं कहा है।
वेदान्त-दर्शन का मन्तव्य है कि अनादि अविद्या या माया ही विश्ववैचित्र्य का कारण है। ईश्वर स्वयं मायाजन्य है। वह कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है इसलिए फल प्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है।
बौद्ध-दर्शन का अभिमत है कि मनोजन्य संस्कार वासना है और वचन और कायजन्य संस्कार अविज्ञप्ति है। लोभ, द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है। लोभ, द्वेष और मोह से भी प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियां करता है और उससे पुनः लोभ, द्वेष और मोह पैदा करता है, इस तरह अनादि काल
७६ • व्रात्य दर्शन
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