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८ विभिन्न दर्शनों में कर्म : एक तुलनात्मक विमर्श
भारतीय दार्शनिकों ने अनेक विषयों पर चिन्तन किया है। आत्मा, बन्ध, मोक्ष, पुनर्जन्म, कर्म आदि विषय समान रूप से उनकी विचारणा के बिन्दु रहे हैं। यह हो सकता है कि विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न विषयों को पृथक्-पृथक् रूप से वरीयता प्रदान की हो। किसी ने आत्मा पर मुख्य रूप से बल दिया है तो अन्य ने बन्ध-मोक्ष को सामने रखकर अपनी मेधा-यात्रा सम्पन्न की। कर्म पर चार्वाकेतर सभी भारतीय दार्शनिकों ने विमर्श किया है किन्तु कर्म-सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों पर, जैसे-कर्म का स्वरूप, कर्म-बन्धन, कर्म-फल, कर्म-स्थिति, कर्म-क्षय आदि विषयों का जितना सूक्ष्म, सुव्यवस्थित एवं सर्वांगीण विवेचन जैन-दर्शन में मिलता है, उतना अन्य दर्शनों में नहीं है।
__ आत्म स्वातन्त्र्य की पृष्ठभूमि में सत्कर्मों की प्रतिष्ठा करना कर्मवाद का प्रमुख सिद्धान्त रहा है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा की परम शक्ति को प्राप्त करने की क्षमता विद्यमान तो है किन्तु वह अविद्या, प्रकृति, अज्ञान, अदृष्ट, मोह, वासना, संस्कार आदि के कारण प्रच्छन्न हो जाती है। इसी प्रच्छादक शक्ति को जैन-दर्शन में 'कर्म' शब्द से अभिहित किया गया है। विभिन्न दर्शनों में कर्म
जैन परम्परा में जिस अर्थ में 'कर्म' शब्द व्यवहत हुआ है, उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य भारतीय दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदान्त दर्शन में माया एवं अविद्या शब्दों का प्रयोग हुआ है। मीमांसा-दर्शन में अपूर्व शब्द प्रयुक्त है। बौद्ध-दर्शन में वासना और अविज्ञप्ति शब्दों का विनियोग हुआ है। सांख्य-दर्शन में आशय शब्द उपन्यस्त है। दैव, भाग्य, पुण्य-पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं,
व्रात्य दर्शन - ७
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