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से यह संसार-चक्र चल रहा है ।"
न्याय-वैशेषिक
जैन- दर्शन की तरह न्याय-वैशेषिक दर्शन में कर्म को स्वीकार किया गया है । नैयायिकों ने राग, द्वेष और मोह रूप - इन तीन दोषों को माना है । इन तीन दोषों से प्रेरणा प्राप्त कर जीवों के मन, वचन, काय की प्रवृत्ति होती है । इस प्रवृत्ति से धर्म व अधर्म की उत्पत्ति होती है । धर्म व अधर्म को उन्होंने 'संस्कार' कहा है। नैयायिकों ने जिन राग, द्वेष, मोहरूप तीन दोषों का उल्लेख किया है, वे जैनों को मान्य हैं और जैन उन्हें भाव - कर्म कहते हैं । नैयायिक जिसे दोषजन्य प्रवृत्ति कहते हैं, उसे ही जैन योग कहते हैं । नैयायिकों ने प्रवृत्तिजन्य धर्माधर्म को संस्कार अथवा अदृष्ट की संज्ञा प्रदान की है, जैनों में पौद्गलिक कर्म अथवा द्रव्य कर्म का वही स्थान है।
जैनों ने स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर भी माना है। उसे वे कार्मण शरीर कहते हैं । इसी कार्मण शरीर के कारण स्थूल शरीर की उत्पत्ति होती है । नैयायिक कार्मण शरीर को 'अव्यक्त शरीर' भी कहते हैं । जैन कार्मण शरीर को अतीन्द्रिय मानते हैं, इसलिए वह अव्यक्त ही है ।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता नैयायिकों के समान है। प्रशस्तपाद ने जिन चौबीस गुणों का प्रतिपादन किया है, उनमें अदृष्ट भी एक है। यह गुण संस्कार गुण से भिन्न है ।" उसके दो भेद हैं-धर्म और अधर्म । इससे ज्ञात होता है कि प्रशस्तपाद धर्माधर्म का उल्लेख संस्कार शब्द से न कर अदृष्ट शब्द से करते हैं । नैयायिकों के संस्कार के समान प्रशस्तपाद ने अदृष्ट को आत्मा का गुण माना है ।
न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी दोष से संस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से दोष और फिर दोष से संस्कार एवं जन्म यह परम्परा बीज और अंकुर के समान अनादि मानी है । यह जैनों द्वारा मान्य भाव-कर्म और द्रव्य-कर्म की अनादि परम्परा जैसा ही है ।" न्याय - दर्शन ईश्वर को कर्मफल का नियामक मानता है ।१२ परन्तु जैन दर्शन कर्मफल नियामक ईश्वर में विश्वास नहीं करता है । वह यह मानता है कि कर्म स्वतः ही फल देने में सक्षम है।
योग और सांख्य
योग-दर्शन की कर्म-प्रक्रिया की जैन-दर्शन से अत्यधिक समानता है। योग-दर्शन के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश-ये पांच क्लेश
व्रात्य दर्शन • ७७
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