SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्य निक्षेप तत्पर्याय परिणत और तत्पदार्थोपयुक्त नहीं होता है इसलिए वह वर्तमान पर्याय सेशून्य एवं ज्ञान पर्याय से शून्य है। द्रव्य के अनेक अर्थ होते हैं। जिसमें भूतकालीन पर्याय की योग्यता थी, भविष्यकालीन पर्याय की योग्यता होगी, उसका नाम है द्रव्य । उदाहरणस्वरूप जिस घट में घी था और वर्तमान में वह खाली है वह भूतकालीन पर्याय की अपेक्षा घट, घट है। द्रव्य निक्षेप के आगमतः (ज्ञानात्मक) पक्ष पर सात नयों से विचार किया गया है। नैगम नय का विषय सामान्य और विशेष दोनों हैं इसलिए उसके अनुसार द्रव्यावश्यक एक, दो, तीन यावत् लाख करोड़ कितने ही हो सकते हैं। जितने अनुपयुक्त हैं वे सब द्रव्यावश्यक हैं। व्यवहार नय का विषय है विशेष अथवा भेद। यह नय लोक व्यवहार को मान्य करता है इसलिए इसमें भी नैगम नय की भांति द्रव्यावश्यक की संख्या का निर्देश किया जा सकता है। संग्रह नय का विषय है-सामान्य । इसलिए उसमें द्रव्यावश्यक का राशिकरण हो सकता है जैसे एक द्रव्यावश्यक और अनेक द्रव्यावश्यकों की राशि अर्थात् संग्रह नय के अनुसार अनेक का अस्तित्व ही नहीं है वह एक को ही स्वीकार करता है, अनेक होंगे वहां पर भी उनको समूह रूप मे एक ही स्वीकार करेगा अतः संग्रह नय के अनुसार द्रव्यावश्यक एक ही होगा। ऋजुसूत्र नय का विषय है-पर्याय। इसलिए उसके अनुसार एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः द्रव्यावश्यक है, बहुवचन इसे मान्य नहीं है। तीनों शब्द नयों का विषय है-शब्द। उनके अनुसार कोई व्यक्ति जानता है और उपयुक्त नहीं है-ऐसा हो नहीं सकता। अतः इन तीनों को आगमतः द्रव्यावश्यक मान्य नहीं है। उपर्युक्त विषय 'अनुयोगद्वार सूत्र' में विवेचित हुआ है। वहां 'आवश्यक' शब्द के नाम, स्थापना आदि चार निक्षेप किये हैं। आवश्यक की आगमतः द्रव्य निक्षेप के संदर्भ में चर्चा करते हुए वहां पर द्रव्यावश्यक की नैगम आदि सात नयों के सात संयोजना की है जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। संक्षेप में हम इस प्रकार समझ सकते हैं। आवश्यक शब्द का द्रव्य निक्षेप = द्रव्यावश्यक। १. नैगम नय सामान्य-विशेषग्राही है अतः इस नय की अपेक्षा द्रव्यावश्यक अनेक हैं। २. व्यवहार नय भेदग्राही है अतः इसकी अपेक्षा भी द्रव्यावश्यक अनेक हैं। ३. संग्रह अभेदग्राही है अतः इसकी अपेक्षा द्रव्यावश्यक एक है। ४. ऋजुसूत्र नय वर्तमान पर्यायग्राही है अतः इसकी अपेक्षा एक अनुपयुक्त ७२ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy