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द्रव्यक्रिया है। द्रव्य शब्द का प्रयोग अप्रधान अर्थ में भी होता है, जैसे-आचार गुण शून्य होने से अंगारमर्दक को द्रव्याचार्य कहा जाता है।
___ अनुयोगद्वार में द्रव्य निक्षेप के दो प्रकार बताए गये हैं-आगमतः एवं नो आगमतः।
आगमतः द्रव्य निक्षेप- 'जीवादिपदार्थज्ञोऽपि तत्राऽनुपयुक्तः। कोई व्यक्ति जीव विषयक अथवा अन्य किसी वस्तु का ज्ञाता है किन्तु वर्तमान में उस उपयोग से रहित है उसे आगमतः द्रव्य निक्षेप कहा जाता है।
नोआगमतः द्रव्य निक्षेप-आगम द्रव्य की आत्मा का उसके शरीर में आरोप करके उस जीव के शरीर को ही ज्ञाता कहना नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप है।
आगमतः द्रव्यनिक्षेप में उपयोग रूप ज्ञान नहीं होता किन्तु लब्धि रूप में ज्ञान का अस्तित्व रहता है किन्तु नो आगमतः में लब्धि एवं उपयोग उभय रूप से ही ज्ञान का अभाव रहता है।
नोआगमतः द्रव्यनिक्षेप मुख्यरूप से तीन प्रकार का है-१. ज्ञशरीर, २. भव्यशरीर एवं ३. तद्व्यतिरिक्त। इनके भेद-प्रभेद अनेक हैं।
१. ज्ञशरीर-जिस शरीर में रहकर आत्मा जानता, देखता था वह ज्ञशरीर है। जैसे-आवश्यकसूत्र के ज्ञाता की मृत्यु हो जाने के बाद भी पड़े हुए शरीर को देखकर कहना यह आवश्यकसत्र का ज्ञाता है।
२. भव्यशरीर-जिस शरीर में रहकर आत्मा भविष्य में ज्ञान करने वाली होगी वह भव्यशरीर है। जैसे-जन्मजात बच्चे को कहना यह आवश्यकसूत्र का ज्ञाता है।
३. तद्व्यतिरिक्त-वस्तु की उपकारक सामग्री में वस्तुवाची शब्द का व्यवहार किया जाता है, यह तद्व्यतिरिक्त है। जैसे--अध्यापन के समय होने वाली हस्त संकेत आदि क्रिया को अध्यापक कहना। लौकिक, कुप्रावचनिक एवं लोकोत्तर के भेद से यह तीन प्रकार का है।
तद्व्यतिरिक्त का लौकिक, कुप्रावचनिक एवं लोकोत्तर यह सापेक्ष वर्गीकरण है। इसमें आवश्यक क्रिया करने वाले व्यक्तियों को तीन वर्गों में संग्रहीत किया गया है। प्रथम वर्ग लौकिक या सामाजिक है। शेष दो वर्ग धर्म की आराधना करने वाले व्यक्तियों के हैं। जैन दृष्टि से एकान्तवाद को कुप्रवचन माना गया है। जितनी भी एकान्तवादी विचारधारा है वह जैन दृष्टि के अनुसार 'कुप्रावचनिक' इस वर्गीकरण में समाहित है। लोकोत्तर वर्ग में मात्र अनेकान्त प्रवचन का संग्रह होता है।
व्रात्य दर्शन • ७१
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