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नाम और स्थापना दोनों ही वास्तविक नहीं है फिर इन दोनों में क्या अन्तर है? आचार्य हरिभद्र ने इनमें कालकृत भेद माना है। नाम तब तक रहता है, जब तक उससे सम्बद्ध द्रव्य का अस्तित्व है। स्थापना अल्पकालिक भी होती है और द्रव्य के अस्तित्व के साथ जुड़ी हुई भी है। आज जो अक्ष आवश्यक क्रिया करते हुए साधु के लिए स्थापित हो सकता है कालान्तर में वह अन्य किसी के लिए भी हो सकता है। जबकि नाम में इस प्रकार का बदलाव नहीं होता। दूसरा कारण यह भी है कि नाम निराकार होता है पर स्थापना में कोई न कोई आकार होता है।
नाम और स्थापना की चर्चा में एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि स्थापना की भांति नाम भी परिवर्तित हो सकता है फिर इसे यावज्जीवन क्यों माना गया? नाम के दो रूप हैं-नक्षत्र के आधार पर निर्धारित नाम और बोलचाल का नाम। नक्षत्र से सम्बन्धित नाम अपरिवर्तनीय होता है। व्यक्ति के जीवन की अनेक बातों का निर्णय इसी नाम के आधार पर किया जाता है। जो नाम बदल जाता है वह उपनाम होता है कुछ व्यक्तियों के नाम एक से अधिक होते हैं। आगमों में भगवान महावीर के अनेक नामों का उल्लेख है। यहा उपनामों और पर्यायवाची नामों की विवक्षा नहीं है।
अनुयोगद्वार का मन्तव्य है कि नाम यावत्कथित अर्थात् स्थायी होता है। स्थापना अल्पकालिक एवं स्थायी दोनों प्रकार की होती है। विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार नाम मूल अर्थ से निरपेक्ष और यादृच्छिक अर्थात् इच्छानुसार संकेतित होता है। स्थापना मूल पदार्थ के अभिप्राय से आरोपित होती है।
__मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार मेरु, द्वीप, समुद्र आदि के नाम यावत् द्रव्यभावी होते हैं। देवदत्त आदि के नामों का परिवर्तन भी होता है।
नाम और स्थापना दोनों वास्तविक अर्थ से शून्य होते हैं। नाम और स्थापना में एक अन्तर यह भी है कि जिसकी स्थापना होती है उसका नाम अवश्य होता है किन्तु नाम निक्षिप्त की स्थापना होना आवश्यक नहीं है। द्रव्य निक्षेप
पदार्थ का भूत एवं भावी पर्यायाश्रित व्यवहार तथा अनुयोग अवस्थागत व्यवहार द्रव्य निक्षेप है-ये तीनों विवक्षित क्रिया में परिणत नहीं होते हैं, इसलिए इन्हें द्रव्य निक्षेप कहा जाता है।
जो व्यक्ति पहले उपाध्याय रह चुका है अथवा भविष्य में उपाध्याय बनने वाला है, वह द्रव्य उपाध्याय है। अनुपयोग दशा में की जाने वाली क्रिया भी
७. व्रात्य दर्शन
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