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________________ तदभिप्रायेण प्रतिष्ठापनं स्थापना ।' अर्थात् जो अर्थ तद्रूप नहीं है उसको तद्रूप मान लेना स्थापना निक्षेप है । जैसे- उपाध्यायप्रतिकृतिः स्थापनोपाध्यायः ।' स्थापना सद्भाव एवं असद्भाव के भेद से दो प्रकार की होती हैं अतः स्थापना निक्षेप भी दो प्रकार का हो जाता है । १. सद्भाव स्थापना - एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है । यह सद्भाव स्थापना है - ' मुख्याकारसमाना सद्भावस्थापना ।' २. असद्भाव स्थापना - एक व्यक्ति ने शंख आदि में अपने गुरु का आरोप कर लिया, यह असद्भाव स्थापना है । ' तदाकारशून्या चासद्भावस्थापना ।' पदार्थ का नामकरण करने के पश्चात् 'यह वही है ' - इस अभिप्राय से उसकी व्यवस्थापना करने का अर्थ है - स्थापना । न्यायकुमुदचन्द्र में इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है कि - 'स्थाप्यते इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा च आहितनामकस्य अध्यारोपितनामकस्य द्रव्यस्य इन्द्रादेः 'सोऽयम्' इत्यभिसंधानेन व्यवस्थापना' विवक्षित अर्थ से शून्य आकृति को उस अभिप्राय से स्थापित करना स्थापना | स्थापना निक्षेप में विवक्षित अर्थ को सदृश और असदृश दोनों प्रकार की आकृतियों में स्थापित किया जा सकता है। अनुयोगद्वार में सदृश आकृतियों के लिए काष्ठकर्म आदि का उल्लेख हुआ है । मनुष्य, पशु या किसी अन्य वस्तु की काष्ठ निर्मित आकृति का नाम काष्ठकर्म है। काष्ठ की प्रतिमा शिल्प के वैशिष्ट्य से यथार्थ जैसी दिखाई देती है। इनको सद्भाव स्थापना कहा जाता है । असदृश आकृतियों के लिए अक्ष, वराटक आदि को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है । पासों और कौड़ियों को भी प्रतीक मानकर स्थापित करने की परम्परा रही है । इसी कारण स्थापना आवश्यक के वर्णन में अनुयोगद्वार में काष्ठकर्म आदि की तरह अक्ष का भी ग्रहण हुआ है । प्रश्न हो सकता है कि प्रतीक तो कोई भी वस्तु बन सकती है फिर अक्ष आदि का ही उल्लेख क्यों ? इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि शंख, कौड़ा आदि वस्तुओं को लौकिक दृष्टि से मंगल माना जाता है। मांगलिक वस्तुओं को प्रतीक बनाने से मानसिक तुष्टि भी रहती है इसलिए असद्भाव स्थापना के उदाहरण में इनका उल्लेख होता रहा है । नयचक्र में स्थापना के दो अन्य प्रकार निर्दिष्ट हैं-साकार और निराकार । प्रतिमा में अर्हत् की स्थापना साकार स्थापना है तथा केवलज्ञान आदि क्षायिक गुणों में अर्हत् की स्थापना करना निराकार स्थापना है 'सायार इयर ठवणा कित्तिम इयरा हु बिंबजा पढमा । इयरा खाइय भणिया ठवणा अरिहो य णायव्वो || ( नयचक्र २७४ ) व्रात्य दर्शन • ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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