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________________ की है वहां निक्षेप का उसमें ही अन्तर्भाव कर दिया है। उत्तरकालीन ग्रन्थों में उपक्रम की अपेक्षा निक्षेप ही अधिक व्यवहत हुआ है तथा निक्षेप के नाम, स्थापना आदि चार भेदों का ही मुख्यतया सभी आचार्यों ने प्रयोग किया है। नियुक्ति साहित्य, अनुयोगद्वार एवं भाष्य आदि ग्रन्थों में जिस विस्तार से निक्षेप पद्धति का प्रयोग हुआ है, उनके परवर्ती ग्रन्थों में निक्षेप का वैसा विस्तार से उल्लेख नहीं हआ है। निक्षेप को सीमित कर दिया गया। एक समय में निक्षेप जैन आगमों के पढ़ने की विधि थी वर्तमान में वह स्वयं मात्र सिद्धान्त के रूप में पढ़ी जाती है। उस विधि से पढ़ने की परम्परा आज प्रचलित नहीं है। जैन आगमों की व्याख्या के संदर्भ में निक्षेप पद्धति का बहुलता से प्रयोग हुआ है। अनुयोगद्वार सूत्र में 'आवश्यक', 'श्रुत', स्कन्ध आदि शब्द के अर्थ विमर्श के प्रसंग में निक्षेप का प्रयोग विस्तार से हुआ है। निक्षेप के द्वारा ग्रन्थकार प्रतिपाद्य के हार्द को हृदयंगम कराने में समर्थ हो जाता है। निक्षेप के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप विमर्श के द्वारा यह तथ्य स्पष्ट हो जायेगा। व्यवहार जगत् में भाषा की अनिवार्यता है। भाषा के अभाव में व्यवहार का संवहन दुष्कर है किन्तु भाषा की अपनी कुछ सीमाएं हैं, विवशताएं हैं फलस्वरूप वक्ता अपने अभिलषित को अभिव्यजित करने में असमर्थता का अनुभव करता है। भाषा एवं वक्ता की इन समस्याओं का समाधान जैन परम्परा में निक्षेप-व्यवस्था के द्वारा करने का श्लाघनीय प्रयत्न किया गया है। वस्तु स्वरूपतः अनन्त धर्मात्मक है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु का अवबोध प्रमाण एवं नय के द्वारा होता है। प्रमाण एवं नय के विषयभूत जीव आदि पदार्थों का नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव इन चार निक्षेपों से न्यास किया जाता है। तत्वार्थसूत्र में कहा गया-'नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः' वस्तु के सम्यक् संबोध में प्रमाण, नय एवं निक्षेप का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके बिना सम्यक् प्रमेय व्यवस्था हो ही नहीं सकती। निक्षेप की आवश्यकता व्यवहार जगत् में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जहां परस्पर एक-दूसरे से संवाद स्थापित करना होता है, वहां शब्द अत्यन्त अपेक्षित हैं और एक ही शब्द एकाधिक वस्तु एवं उनकी अवस्थाओं के ज्ञापक होने से उनके प्रयोग में भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है, वस्तु का यथार्थ बोध दुरूह हो जाता है। निक्षेप के द्वारा भाषा प्रयोग की उस दुरूहता का सरलीकरण हो जाता है। निक्षेप भाषा व्रात्य दर्शन • ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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