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________________ अनुयोगद्वार सूत्र में सामायिक अध्ययन के चार अनुयोगद्वार बताये हैं-उपक्रम, निक्षेप, अनुगम एवं नय। अनुयोग का अर्थ अध्ययन के अर्थ की प्रतिपादन पद्धति है अर्थात् सूत्र की व्याख्या-पद्धति को अनुयोग कहा जाता है। जिस नगर के द्वार नहीं होता वह नगर वास्तव में नगर ही नहीं होता। एक द्वार वाले नगर में जाना-आना कठिन होता है। कार्यसिद्धि में विलम्ब होता है। चार प्रवेश द्वार होने पर जाना-आना सरल हो जाता है, कार्य बेला का अतिक्रमण नहीं होता। वैसे ही व्याख्या के चार द्वार होने से सूत्र की जानकारी सुगम हो जाती है। अनुयोगद्वारसूत्र में प्रथम उपक्रम द्वार की व्याख्या करते हुए उपक्रम के छह प्रकार बतलाये हैं-१. नाम उपक्रम, २. स्थापना उपक्रम, ३. द्रव्य उपक्रम, ४. क्षेत्र उपक्रम, ५. काल उपक्रम और ६. भाव उपक्रम। निक्षेप के विकासक्रम की दृष्टि से यह मननीय तथ्य है कि इसी सूत्र में आवश्यक, श्रुत एवं स्कन्ध इन शब्दों के चार-चार निक्षेप किये गये हैं जबकि सामायिक अध्ययन के चार अनुयोगद्वार बतलाकर प्रथम उपक्रम द्वार के छः भेद किये हैं उनमें चार प्रकार तो वे ही हैं जो निक्षेप के हैं तथा क्षेत्र और काल ये दो अतिरिक्त हैं। एक विशेष बात यह भी है कि उपक्रम के भेदों की विवेचना निक्षेप जैसी ही है। यहां एक जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक ही है कि जब अनयोगद्वार के रूप में निक्षेप एवं उपक्रम को अलग-अलग द्वार माना गया है तब निक्षेप के भेदों को ही उपक्रम के भेद क्यों माना गया? तथा उस प्रसंग में निक्षेप की चर्चा भी क्यों नहीं है? इसी सूत्र में प्रकारान्तर से उपक्रम के छः अन्य प्रकारों का भी उल्लेख है। उन छः प्रकारों में पहला प्रकार है-आनुपूर्वी। उस आनुपूर्वी के दश प्रकारों का वर्णन है। उन दश प्रकारों में चार तो वे ही नाम हैं जो निक्षेप के भेद हैं तथा उनकी व्याख्या भी निक्षेप जैसी ही है। इस सम्पूर्ण चर्चा से ऐसा प्रतीत होता है कि निक्षेप उपक्रम का ही एक प्रकार है जबकि ग्रन्थ में इसका उपक्रम की तरह ही पृथक् द्वार माना है, उसका कुछ स्थानों पर पृथक् उल्लेख एवं वर्णन भी है किन्तु उपक्रम के प्रसंग में निक्षेप का उसमें ही अन्तर्भाव कर दिया है। जिससे प्रतीत होता है इस सूत्र रचना तक निक्षेप का स्वतंत्र एवं उपक्रम दोनों रूप से प्रयोग होता रहा है। यद्यपि इस सूत्र में उपक्रम के छः भेद हैं एवं उनके अनेक प्रभेद प्राप्त है जबकि निक्षेप के चार ही भेद उपलब्ध है तथा उनके अन्य प्रभेद भी उपलब्ध है। यह भी द्रष्टव्य है जहां निक्षेप के द्वारा आवश्यक आदि की स्वतंत्र व्याख्या की है वहां उपक्रम से व्याख्या नहीं की है तथा उपक्रम से जहां व्याख्या ६४ . व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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