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________________ या जो पदार्थ वर्तमान में जल आदि लाने के काम में आ रहा है उस पदार्थ को घट कह रहे हो । घट शब्द का प्रयोग इन विभिन्न परिस्थितियों में हुआ है। इन सारी परिस्थितियों में प्रयुक्त शब्द का किस संदर्भ में प्रस्तुत प्रकरण में प्रयोग हुआ है, इसका बोध निक्षेप के द्वारा होता है । सविशेषण शब्द प्रयोग के द्वारा निक्षेप प्रासंगिक अर्थ का ज्ञान करवा देता है । इस निक्षेप पद्धति का जैन साहित्य में बहुलता से प्रयोग हुआ है। निक्षेप जैन परम्परा की मौलिक अवधारणा है। जैनाचार्यों ने निक्षेप पद्धति का आविष्कार क्यों किया? इसके प्रादुर्भाव की पृष्ठभूमि में क्या कारण मौजूद थे ? निक्षेप के विचार का विकास किस तरह हुआ ? निक्षेप का स्वरूप, परिभाषा, भेद, उसके लाभ क्या हैं? इत्यादि निक्षेप सिद्धान्त से सम्बन्धित विभिन्न विषयों की प्रस्तुत निबन्ध में विचारणा होगी । निक्षेप का उद्भव द्रव्य अनन्तपर्यायात्मक होता है। उन अनन्त पर्यायों को जानने के लिए अनन्त शब्द आवश्यक है । शब्दकोश में शब्द बहुत सीमित है । हम संकेत विध के अनुसार एक शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि पाठक अथवा श्रोता विवक्षित अर्थ को पकड़ नहीं पाता है, फलतः अनिर्णय की स्थिति बन जाती है । उस अनिर्णय की स्थिति का निराकरण करने के लिए जैनाचार्यों ने निक्षेप विधि का आविष्कार किया। निक्षेप का उद्भव व्यवहार की सम्यक् संयोजना के लिए हुआ । व्यवहार की सम्यक् योजना करने के लिए जिस पद्धति का अनुसरण किया जाता है उसको निक्षेप कहते हैं। निक्षेप का प्रयोजन है- ह-वाक्य रचना का ऐसा विन्यास जिससे पाठक अथवा श्रोता विवक्षित अर्थ को ग्रहण कर सके। इसके लिए प्रत्येक पर्याय के लिए विशेषण युक्त वाक्य रचना अपेक्षित है। निक्षेप पद्धति में एक शब्द की अनेक संदर्भों में जानकारी मिलती है I मनुष्य ज्ञाता है और पदार्थ ज्ञेय है । ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध कैसे स्थापित हो सकता है? यह एक दार्शनिक प्रश्न है। इस प्रश्न को जैन दर्शन में निक्षेप पद्धति द्वारा सुलझाया गया है। हमारा ज्ञान परोक्ष है, इसलिए हम किसी भी वस्तु को सर्वात्मना साक्षात् नहीं जान सकते। हम उसे किसी माध्यम से ही जानते हैं । माध्यम के द्वारा ज्ञाता का ज्ञेय के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है । माध्यम की शृंखला में प्रमुख तत्त्व दो हैं-नाम और रूप । वस्तु का ज्ञाता के ज्ञान में अवतरण व्रात्य दर्शन • ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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