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________________ है। बढ़ती हुई आर्थिक प्रतिस्पर्धा ने उच्च रक्तचाप, हार्टअटैक आदि जानलेवा बीमारियों के प्रतिशत को शतगुणित कर दिया है। अतः वर्तमान अर्थनीति पर पुनर्विचार की अत्यन्त अपेक्षा है। आर्थिक विकास के स्वप्निल स्वप्नों में मनुष्य दिग्भ्रमित हो रहा है। अपराध, भ्रष्टाचार, क्रूरता आदि अमानवीय व्यवहार बढ़ते जा रहे हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री 'मेरी सेली' का कहना है Science requires not genious but moral wisdom आज नैतिक दृष्टि की अपेक्षा है जिसके द्वारा मानवतावादी अर्थशास्त्र की रचना की जा सके। आर्थिक विकास के साथ-साथ मानसिक अशांति चरम बिन्दु पर पहुंच रही है। लंदन में १९६८ में Gall-up सर्वे हुआ था। उस सर्वे के दौरान एक प्रश्नावली जनता के सामने प्रस्तुत की और उसके उत्तर प्राप्त किये गये। १६६६ में वैसा ही सर्वे पुनः हुआ और चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। १६६८ एवं १६६६ के सर्वे से प्राप्त कुछ आंकड़ों का तुलनात्मक दृष्टि से विश्लेषण करने पर मन की वार्तमानिक स्थिति की भयावहता का आकलन सहज ही हो जाता है। प्रस्तुत है सर्वे के आंकड़े ૧૬૬ ૧૬૬ १. प्रसन्नता घट रही है । ३३% ५३% २. मानसिक अशांति बढ़ रही है। ४८% ७६% ३. पारस्परिक व्यवहार खराब हो रहे हैं ६२% ६२% विभिन्न व्यक्तियों से सन् ६८ एवं ६६ में प्रसन्नता, मानसिक अशांति एवं व्यवहार में वैमनस्य के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में प्राप्त आंकड़े वर्तमान युग की बढ़ी हुई तनावपूर्ण स्थिति को स्पष्ट करने में पर्याप्त हैं। इस युग में आर्थिक विकास के साथ ही मानसिक संताप भी बढ़ा है। केनीथ क्लार्क ने World Bank और international monetary fund, Washington की संयुक्त मीटिंग में कहा-इंग्लैण्ड की आर्थिक स्थिति बहुत ही सुदृढ़ है। पचास वर्ष तक इसे कोई भी चैलेंज नहीं कर सकता। डेविड निकालसन लोर्ड ने सर्वे के संदर्भ में केनीथ की बात को उद्धृत करते हुए कहा-'Healthy economy but unhealthy society' अर्थ तो बढ़ा है किन्तु उसके साथ मानसिक अशांति चरम शिखर पर है। Objective reality, कार, फ्रिज आदि बढ़े हैं किन्तु Subjective feelings खराब हो रही है। अर्थ की असीम आसक्ति ने सुविधावाद को जन्म दिया है। स्वस्थ समाज वह होता है जहां न अर्थ का अभाव होता है, न ही प्रभाव। ५६ - व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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