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दर्शन को जीवन के साथ जुड़ना चाहिये। जो दर्शन जीवन के साथ नहीं जुड़ता. युग की समस्याओं का समाधान नहीं देता उस दर्शन/चिंतन/विचार की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। अनेकान्त युग की समस्याओं का समाधान देने में समर्थ है। वर्तमान युग के विमर्शनीय विषय राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति, विज्ञान आदि के प्रश्नों का समाधान अनेकान्त के आलोक में खोजा जा सकता है।
आर्थिक व्यवस्था, अर्थ की समायोजना, आर्थिक विकास आदि की अवधारणाएं अर्थनीति से सम्बद्ध है। अनेकान्त के आलोक में इन अवधारणाओं का मूल्यांकन मानव जाति के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
जीवन के दो पक्ष हैं-बाह्य एवं आभ्यन्तर। दोनों के समुचित विकास से ही जीवन की सर्वांगीण मूल्यवत्ता हो सकती है। भारतीय चिंतन में जीवन का विश्लेषण खण्ड-खण्ड में नहीं किन्तु अखण्ड रूप से किया गया है। अभ्युदय निश्रेयस् से संयुक्त होकर ही जीवन कल्याणकारी बन सकता है। 'यतोऽभ्युदयनिश्रेयसस्सिद्धिः स धर्मः' अभ्युदय एवं निश्रेयस् दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। निश्रेयस् रहित अभ्युदय विकास विनाश का कारण बन जाता है। भारतीय मनीषियों ने अर्थ, काम, धर्म एवं मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की चर्चा की। अर्थ एवं काम जीवन के वाह्य पक्ष को पोषण प्रदान करते हैं तथा धर्म एवं मोक्ष जीवन के आभ्यन्तर पक्ष को पुष्ट करते हैं। शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा ये चार व्यक्तित्व के घटक तत्त्व हैं। शरीर अर्थ से, मन काम से, बुद्धि धर्म से एवं आत्मा मोक्ष से जुड़ी हुई है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। जीवन-यापन के लिए उसे अर्थ की अनिवार्य अपेक्षा है। अर्थ के अभाव में वह रोटी, कपड़ा और मकान जैसी जीवन की न्यूनतम अपेक्षाओं की पूर्ति भी नहीं कर सकता। अर्थ और काम समाज व्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं। सामाजिक समायोजन में अर्थ का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पूंजीवाद एवं साम्यवाद वर्तमान अर्थव्यवस्था की मूल अवधारणाएं हैं।
पूंजीवाद व्यक्तिगत सम्पत्ति की धारणा को महत्त्व प्रदान कर आर्थिक क्रियाओं को संगठित करता है। 'व्यक्तिगत सम्पत्ति का मंत्र रेत को भी सोने में परिवर्तित कर देता है', इस विचार को आधार मानते हुए पूंजीवाद आर्थिक स्वतन्त्रता, प्रतियोगिता और व्यक्तिगत पूंजी संचय को सदैव प्राथमिकता प्रदान करता है। पूंजीवाद में उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति विशेष का अधिकार रहता है।
साम्यवाद के अनुसार अर्थ पर व्यक्ति का अधिकार नहीं है। उस पर राज्य का अधिकार है। उत्पादन के साधनों पर भी व्यक्ति का नहीं किन्तु राज्य का एकाधिकार है। लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रत्येक साधन उचित है यह साम्यवाद का
व्रात्य दर्शन • ५३
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