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६. अर्थनीति और अनेकान्त
अनेकान्त जैन दर्शन का सर्वमान्य एवं प्रतिष्ठित सिद्धान्त है । अनेकान्त का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व है, अर्थात् सम्पूर्ण प्रमेय जगत् अनेकान्तात्मक है । वस्तु विरोधी युगलों की समन्विति है । विरोधी युगलों के कारण ही वस्तु का अस्तित्व है । यदि वस्तु में विरोधी युगल न रहे तो उसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता । जैन चिंतकों ने इस वस्तु जगत् के यथार्थ का उपयोग तत्त्व-मीमांसीय एवं दार्शनिक समस्याओं के समाधान में किया । आगम युग में अनेकान्त का प्रयोग तत्त्व - मीमांसा की विचारणा के संदर्भ में हुआ ।
भगवान् महावीर से गौतम ने पूछा- भंते! आत्मा शाश्वत है या अशाश्वत ? भगवान ने उत्तर दिया- द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मा शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है।
दर्शन युग में अनेकान्त के द्वारा प्रमाण, प्रमेय आदि से सम्बन्धित समस्याओं का समाधान किया गया । अनेकान्त का एक सिद्धान्त है जिसके प्रयोग का क्षेत्र व्यापक है । जिस प्रकार वह दार्शनिक समस्याओं का समाधायक है वैसे ही व्यवहार जगत् की समस्याओं का समाधान भी इससे हो सकता है । यद्यपि प्राचीन साहित्य में व्यवहार जगत् की समस्याओं के संदर्भ में इसका प्रयोग अत्यल्प है किन्तु जैनाचार्य इस सच्चाई से अवगत थे कि इससे व्यवहार जगत् में भी समाधान के द्वार उद्घाटित हो सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क में इस तथ्य का उल्लेख भी किया है । अनेकान्त को नमस्कार है, क्योंकि उसके अभाव में लोक व्यवहार भी संचालित नहीं हो सकता ।
आचार्य यशोविजयजी तक अनेकान्त का दार्शनिक स्वरूप ही विमर्श का विषय रहा किन्तु वर्तमान में उसके व्यावहारिक स्वरूप पर एवं व्यावहारिक क्षेत्र के उपयोग के संदर्भ में चर्चा-परिचर्चा प्रारम्भ हो गयी है ।
५२ • व्रात्य दर्शन
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