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निर्णयात्मक ज्ञान विशेष को भासित करने वाला ज्ञान ही हो सकता है। अपने प्रमाण लक्षण में प्रदत्त निर्णय शब्द का अर्थ बताते हुये उन्होंने कहा है- संशय, अनध्यवसाय तथा अविकल्पक से अतिरिक्त ज्ञान ही निर्णय है। हेमचन्द्राचार्य ने बौद्धों के निर्विकल्पक को तथा जैन के दर्शन का स्वरूप एक जैसा स्वीकार किया है । इस प्रकार उन्होंने दर्शन के प्रमाणत्व का निषेध किया है। प्रमाण ज्ञान ही हो सकता है । निराकार उपयोग प्रमाण नहीं हो सकता । दर्शन के प्रामाण्य का निषेध तार्किक दृष्टि से किया है न कि आगमिक दृष्टि से । इस प्रकार प्राचीन जैन तार्किकों से लेकर आज तक के सभी जैन विद्वानों ने दर्शन को प्रमाण स्वीकार नहीं किया उसको प्रमाण की कोटि से बहिर्भूत रखा है।
दर्शन के प्रमाण्य एवं अप्रामाण्य के संदर्भ में यह विमर्शनीय है कि जैन दर्शन ने चेतना का स्वरूप ज्ञानदर्शनात्मक स्वीकार किया है । 'ज्ञानदर्शनात्मिका चेतना' इस स्वरूप को स्वीकार करके उसके एक रूप को प्रमाण तथा दूसरे को अप्रमाण कहा है। प्रश्न उपस्थित होता है आत्मा के एक स्वभाव को प्रमाण की परिधि में प्रविष्ट किया है दूसरे को उस क्षेत्र से बहिर्भूत । केवलज्ञानी को भी केवल दर्शन होता है। उनके सम्पूर्ण आवारक कर्म ज्ञानावरण दर्शनावरण का नाश हो चुका है। उनका दर्शन कैसा होगा? अप्रमाण रूप होगा या प्रमाणरूप? इस प्रकार दर्शन को अप्रमाण कहा है, यह तथ्य दर्शन के क्षेत्र में नये विमर्श की अपेक्षा रखता है । प्रमाणत्व की कसौटी क्या होगी । केवली सम्यक् दृष्टि भी है तथा उनका ज्ञान मिथ्या भी नहीं हो सकता फिर उनका दर्शन किस कोटि में अन्तर्भूत होगा ? सम्पूर्ण आवारक कर्मों के नष्ट हो जाने पर अप्रमाणत्व का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होगा । अतः छाद्मस्थिक दर्शन को प्रमाण - अप्रमाण उभयरूप एवं केवलदर्शनी के दर्शन को सर्वथा प्रमाणरूप स्वीकार करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
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व्रात्य दर्शन • ५१
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