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मिथ्या इन भेदों में विभाजित ही नहीं किया है। जैसे मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान की सम्यक् एवं मिथ्या कल्पना सम्यक्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि भेद से है। वैसी दर्शन के सम्बन्ध में अवधारणा नहीं है। दर्शनउपयोग निराकार होने से उसमें मिथ्या सम्यकदृष्टिप्रयुक्त अन्तर की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यही कारण है जो दर्शन पहले गुणस्थान में है वही चतुर्थ गुणस्थान में है। यह तथ्य गन्धहस्ति सिद्धसेन ने सूचित किया है-अत्र च यथा साकार दशायां सम्यमिथ्यादृष्ट्योर्विशेषः नैवमस्ति दर्शने, अनाकारत्वे द्वयोरपि तुल्यत्वादित्यर्थः' ।
तर्क युक के आगमन से दर्शन के प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न उपस्थित हुआ। जैसा कि जैनेतर विद्वान इसका तार्किक दृष्टि से विवेचन कर रहे थे। इस तार्किक दृष्टि के अनुसार जैनों को निर्विकल्पक के प्रामाण्य-अप्रामाण्य को स्पष्ट करना था कि वह प्रमाण है अथवा अप्रमाण। उभय है अथवा उभयभिन्न।
तार्किक दृष्टि से जैन परम्परा में दर्शन के प्रमात्व अप्रमात्व के पक्ष में एक विचारधारा नहीं है। सामान्यतः श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं ने इसको प्रमाण की कोटि से बाहर रखा है। उन्होंने अपने प्रमाण के लक्षण में व्यवसाय, निर्णय आदि पदों का समावेश करके ज्ञान को ही प्रमाण माना और निर्विकल्पक के प्रामाण्य का निराकरण किया। बौद्ध दार्शनिक निर्विकल्पक को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। जैन ने उसका निराकरण किया है। माणिक्यनन्दी और वादी देवसूरि ने तो दर्शन को प्रमाणाभास भी कहा है।
अभयदेवसूरि ने दर्शन को प्रमाण कहा है उनका वह कथन आगमानुसारी है तार्किक सम्मत नहीं है। उपाध्याय यशोविजयजी के दर्शन सम्बन्धी प्रामाण्य-अप्रामाण्य के विचार में कुछ विरोध परिलक्षित हो रहा है। एक तरफ तो वे दर्शन को व्यञ्जनावग्रह अन्तरभावी नैश्चयिक अवग्रह बतलाते है जो मति व्यापार होने के कारण प्रमाण की कोटि में आता है और दूसरी तरफ वादी देवसूरि के प्रमाण लक्षण वाले सूत्र की व्याख्या के समय ज्ञानपद का प्रयोजन स्पष्ट करते समय उसको प्रमाण क्षेत्र से बहिर्भूत रखते हैं।
आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण-मीमांसा में दर्शन से सम्बन्ध रखनेवाले विचारों को प्रसंगवश तीन स्थानों पर स्पष्ट किया है। अवग्रह के स्वरूप का निरूपण करते वक्त दर्शन को उसका परिणामी कारण कहा है किन्तु निर्विकल्पक होने से अवग्रह नहीं है। वह इन्द्रियार्थ सम्बन्ध के पश्चात्वर्ती तथा अवग्रह से पूर्ववर्ती है। हेमचन्द्राचार्य ने बौद्धों के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व का निराकरण किया है। उनका कहना है निर्विकल्पक अनध्यवसाय रूप होने से प्रमाण नहीं है। प्रमाण ५० + व्रात्य दर्शन
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