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________________ उसको भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रखा जा सकता है। परन्तु आगमिक परम्परानुसार मतिज्ञान परोक्ष ही है अतः दर्शन भी परोक्ष की परिधि में प्रविष्ट हो जाता है। संक्षेपतः इन्द्रियसन्निकर्ष जन्य निर्विकल्प प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों है तथा अवधि एवं केवल विशुद्ध रूप से प्रत्यक्ष है। तार्किक मान्यतानुसार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों है। जबकि आगमिक मान्यतानुसार इन्द्रियजन्यदर्शन परोक्ष ही है तथा अवधि एवं केवल आत्मजन्य होने से प्रत्यक्ष है। निर्विकल्पक के प्रामाण्य के संदर्भ में दार्शनिक परम्पराएं एकमत नहीं है। कोई उसका पारमार्थिक प्रामाण्य स्वीकार करती है। कुछ उसको प्रामाण्य के क्षेत्र में भी प्रवेश नहीं देती है। बौद्ध तथा वेदान्त दर्शन तो निर्विकल्पक को ही पारमार्थिक प्रत्यक्ष मानते हैं। उनके मतानुसार सविकल्पक ज्ञान का प्रामाण्य व्यावहारिक है, संवृत्ति सत् है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में इसके प्रामाण्य के सम्बन्ध एक विचार नहीं है। प्राचीन परम्परा के अनुसार श्रीधर एवं विश्वनाथ ने इसको प्रमा रूप माना है, परन्तु गङ्गेश की परम्परा के अनुसार यह न प्रमा है न अप्रमा। उनके अनुसार प्रमात्व एवं अप्रमात्व प्रकारता (विशेष प्रकार) घटित होने से होता है। निर्विकल्पक प्रकारता रहित है अतएव वह न प्रमा है न अप्रमा किंतु उससे विलक्षण है। सांख्य एवं पूर्वमीमांसक सामान्यतः ऐसे विषयों में न्याय वैशेषिक मतानुसारी है अतः इनके अनुसार भी निर्विकल्पक प्रमा एवं अप्रमा से विलक्षण है। जैन परम्परा के अनुसार इसके प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य के संदर्भ में दो दृष्टियों से विचार करना होगा। दर्शन (निर्विकल्पक) के प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा तर्क युग में होने लगी। उससे पूर्व आगमिक दृष्टि थी। उसमें प्रामाण्य अप्रामाण्य की चर्चा का प्रश्न ही नहीं था। आगम परम्परा में तो दर्शन या तो सम्यक् हो सकता था अथवा मिथ्या। उसके सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व का आधार आत्मा की सम्यक् अथवा मिथ्यादृष्टि है। जो आत्मा सम्यक् दृष्टि सम्पन्न है उसके दर्शन एवं ज्ञान सम्यक् है। यदि वह मिथ्यादृष्टि है तो उसका दर्शन एवं ज्ञान भी मिथ्या है। व्यवहार में मिथ्या समझा जानेवाला दर्शन भी सम्यक्त्वधारी आत्मा के होता है तो वह सम्यक् है, मिथ्या नहीं है तथा व्यवहार में सत्य, अबाधित समझा जानेवाला दर्शन यदि मिथ्यादृष्टियुक्त आत्मा के है तो वह मिथ्या है सम्यक नहीं है। सन्मति टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने इसी आगमिक आधार पर दर्शन को प्रमाण कहा है तथा आचार्य यशोविजयजी ने भी संशय इत्यादि ज्ञानों को सम्यक् दृष्टियुक्त होने से सम्यक् कहा उसका आधार भी आगमिक दृष्टिकोण है। आगमिक और प्राचीन श्वेताम्बर, दिगम्बर उभय परम्परा में दर्शन को सम्यक् व्रात्य दर्शन . ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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