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________________ है। जैन परम्परा जिसे दर्शन कहती है उसको ही न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक निर्विकल्पक या आलोचना मात्र कहते हैं। न्याय वैशेषिकों ने प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण में ही सविकल्पकत्व एवं निर्विकल्पकत्व की चर्चा की है। उनका प्रत्यक्ष सविकल्पक, निर्विकल्पक उभयप्रकार का है-इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्' यहां पर अव्यपदेश्य पद निर्विकल्प तथा व्यवसायात्मक पद सविकल्प का द्योतन कर रहा है। निर्विकल्पक अव्यपदेश्य होता है तथा सशब्द हुये बिना ज्ञान में व्यवसायात्मकता नहीं हो सकती। बौद्ध दर्शन में उस सत्तामात्र बोध का निर्विकल्पक नाम प्रसिद्ध है। वह प्रत्यक्ष को निर्विकल्प स्वीकार करता है। अनुमान प्रमाण की सशब्दता उसे मान्य है। उपर्युक्त सारे दर्शन ज्ञानव्यापार के उत्पत्ति क्रम में सर्वप्रथम ऐसे बोध का स्थान अनिवार्य मानते हैं जो ग्राह्य विषय के सन्मात्र को ग्रहण करे, पर उसमें किसी भी प्रकार का विशेषण-विशेष्य रूप भासित न हो। इस प्रकार तीन परम्पराओं को छोड़कर अन्य सभी परम्पराएं निर्विकल्पक के अस्तित्व को निर्विवाद स्वीकृत करती है। निर्विकल्प का अस्तित्व स्वीकार करने वाली सभी दार्शनिक परम्पराएं इन्द्रिय सन्निकर्षजन्य निर्विकल्प को तो स्वीकार करती हैं साथ ही इन्द्रिय सन्निकर्ष के अतिरिक्त उसके अलौकिक अस्तित्व को भी वे स्वीकार करती हैं। जैन और बौद्ध परम्परा में उस प्रकार के अभ्युपगम का स्पष्ट निर्देश है ! बौद्ध परम्परा उस अलौकिक निर्विकल्पक को योगी संवेदन कहती है। जैन परम्परा में वह अवधि और केवलदर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वोत्तरमीमांसक विविध कक्षावाले योगियों का तथा उनके योग जन्य अलौकिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं अतएव उनके मतानुसार भी अलौकिक निर्विकल्पक के अस्तित्व को स्वीकार करने में कोई बाधा दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। यदि यह अवधारणा सम्यक् है तो सिद्ध हो जाता है कि सभी निर्विकल्पक अस्तित्ववादियों ने उसके उभयरूप को मान्य किया सविकल्पक ज्ञान की तरह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप नहीं है। निर्विकल्पकवादियों ने उसे प्रत्यक्ष की श्रेणी में स्थापित किया है। निर्विकल्पक चाहे वह इन्द्रियजन्य हो अथवा आत्मजन्य, अन्यज्ञान से व्यवहित न होने के कारण उसे प्रत्यक्ष ही माना है किन्तु जैन परम्परा के अनुसार निर्विकल्प की गणना प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों में होनी चाहिए। जैन-परम्परा में मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। दर्शन मति के भेद अवग्रह का निश्चय रूप से पूर्ववर्ती है। अतएव ४८ व्रात्य दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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