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५. निर्विकल्प एवं सविकल्प बोध
निर्विकल्पक एवं सविकल्पक बोध की चर्चा सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में रही है । निर्विकल्पक अर्थात् विकल्प रहित, शब्द रहित, निर्विशेषण ज्ञान । सविकल्पक अर्थात् विकल्पसहित, सविशेषण ज्ञान, सशब्द ज्ञान ।
सविकल्पक ज्ञान को सभी दार्शनिक परम्पराओं ने स्वीकार किया है तथा निर्विकल्पक को तीन दार्शनिक परम्पराओं को छोड़कर नामान्तर से सभी ने स्वीकार किया है । शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि ने कहा
'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमादृते अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते'
उनका मानना है कि ऐसा कोई भी बोध नहीं हो सकता जिसमें किसी प्रकार का विशेषण - विशेष्य सम्बन्ध भासित न हो । उनके अनुसार प्रथमदशापन्न ज्ञान भी विशेष से युक्त होता है । वह किसी न किसी विशेष को प्रकाशित करता ही है। अतएव ज्ञानमात्र सविकल्प है। इसी परम्परा का अनुगमन मध्व और वल्लभ इन दो वेदान्त प्रस्थानों ने किया है
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जिस बोध में वस्तु का निर्विशेषण स्वरूप मात्र प्रतिभासित हो उसे निर्विकल्पक ज्ञान कहते हैं । जैन परम्परा में इसी निर्विकल्पक को दर्शन कहा गया है। गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- भन्ते ! उपयोग कितने हैं? महावीर ने कहा - साकार और अनाकार ये दो उपयोग हैं । ये दो उपयोग ही दर्शनान्तरों में उल्लिखित सविकल्पक एवं निर्विकल्पक स्थानीय हैं। साकारोपयोग सविकल्पक और अनाकारोपयोग निर्विकल्पक है । अनाकार उपयोग को दर्शन तथा साकारोपयोग को ज्ञान कहा जाता है। प्रमाणनय तत्त्वालोक में दर्शन को परिभाषित करते हुए कहा गया- ' -'विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनात् ' - सत्ता मात्र का ज्ञान दर्शन
व्रात्य दर्शन • ४७
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