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________________ उत्तरवर्ती नय कार्य होता है। जैसे-नैगम नय कारण एवं संग्रह उसका कार्य है, ऐसे ही अन्य नयों के बारे में जान लेना चाहिए। पूर्ववर्ती नय क्रमशः बहुविषय वाले एवं कारणभूत होते हैं तथा उत्तरवर्ती नय अल्पविषय वाले एवं कार्यरूप होते हैं। निश्चय एवं व्यवहार नय निश्चय एवं व्यवहार के भेद से भी नय दो प्रकार का परिगणित है। तात्त्विक अर्थ को स्वीकार करने वाला निश्चय नय कहलाता है। लोक प्रसिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाले को व्यवहार नय कहा जाता है। 'भ्रमर पंचवर्ण वाला है' यह निश्चय नय की वक्तव्यता है। 'भ्रमरकाला है' यह व्यवहार नय की वक्तव्यता है। नयाभास वस्त के एक अंश को स्वीकृत करने वाले तथा अन्य अंशों का अपलाप करने वाला विचार नयाभास या दुर्नय कहलाता है। केवल द्रव्य अथवा केवल पर्याय का ग्रहण कर परस्पर एक-दूसरे का निरसन करने वाले विचार क्रमशः द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयाभास है। निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं। सापेक्ष नय अर्थवान् निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् जैन दर्शन सब नयों को सापेक्ष दृष्टि से देखता है। इसलिए वह सर्वसंग्राही दर्शन है। यदि सापेक्ष दृष्टि का अवलम्बन लेकर मीमांसा करें तो बौद्धदर्शन ऋजुसूत्र नय, वेदान्त, सांख्य संग्रह नय, नैयायिक, वैशेषिक नैगम नय, शब्दाद्वैत शब्द नय के निदर्शन हो जाते हैं किन्तु ये निरपेक्ष हैं तो मिथ्या हैं। नयाभासों के उदाहरण बन जाते हैं। जैनेतर दर्शनों के मन्तव्यों की नयों से तुलना करते हुये कहा गया बौद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद् वेदान्तिनां संग्रहात्, सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः । शब्दाद्वैतविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैर्गुम्फिता, जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुवीक्ष्यते ॥ जैन दर्शन सब नयों का समूह रूप है। जैसे समुद्र में सारी नदियां समाहित हो जाती है वैसे ही जैन दर्शन में सारी दृष्टियां समाहित हो जाती है। जिस प्रकार अलग-अलग नदियों में समुद्र दृष्टिगोचर नहीं होता वैसे ही विभक्त दृष्टियों में व्रात्य दर्शन • ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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