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समभिरूढ़नय
पर्यायवाची शब्दों में निरुक्त के भेद से अर्थ भेद को स्वीकार करने वाला नय समभिरूढ कहलाता है-पर्याये निरुक्तिभेदेनार्थभेदकृत् समभिरूढः । इस नय के अनुसार कोई शब्द परस्पर पर्यायवाची नहीं हो सकता। यह नय व्युत्पत्तिमूलक शब्द भेद से भी अर्थभेद को मान्य करता है। जैसे-जो भिक्षाशील है वह भिक्ष है। जो वाणी का संयम करता है वह वाचंयम और तपस्या करने वाला तपस्वी कहलाता है। इसके अनुसार भिक्षु, वाचंयम एवं तपस्वी ये अलग-अलग पदार्थ के बोधक शब्द हैं। इन विभिन्न शब्दों से एक अर्थ अभिव्यञ्जित नहीं हो सकता। विभिन्न शब्द विभिन्न प्रकार के अर्थ के ही व्यञ्जक होते हैं। शब्द एवं समभिरूढ़ में अन्तर
शब्दनय शब्द में निरुक्तकृत भेद होने पर भी अर्थ के अभेद को स्वीकार करता है और समभिरूढ़ नय निरुक्तकृत भेद होने के कारण अर्थ में भी भेद मानता है। यही इन दोनों नयों में परस्पर अन्तर है।
एवंभूतनय
द्रव्य की क्रिया परिणति के अनुरूप ही शब्द प्रयोग को स्वीकार करने वाला नय एवंभूत नय है। 'क्रियापरिणतमर्थं तच्छब्दवाच्यं स्वीकुर्वन्नेवंभूतः'-जैसे भिक्षण क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए ही भिक्षु शब्द का प्रयोग हो सकता है। प्रवचन, मौन आदि भिक्षा के अतिरिक्त अन्य क्रिया करते समय उसे भिक्षु नहीं कहा जा सकता। समभिरूढ़ तथा एवंभूत में अन्तर
समभिरूढ़ नय शब्दगत क्रिया में अप्रवृत्त व्यक्ति के लिए भी तवाचक शब्द प्रयोग मान्य करता है जबकि एवंभूतनय शब्द अभिव्यजित क्रिया में प्रवृत्त वस्तु के लिए ही तद् वाचक शब्द का प्रयोग करता है। इसलिए एवंभूतनय एवं समभिरूढ़ नय परस्पर भिन्न है। नयों की परस्पर कारण-कार्यता
इन सातों नय में परस्पर कार्य-कारण भाव है। पूर्ववर्ती नय कारण एवं
४४ . व्रात्य दर्शन
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