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द्रव्य के अनन्त धर्म होते हैं । उन अनन्त धर्मों को जानने के लिए अनन्त ही नय है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा
'जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति णयवाया'
जितने नय के प्रकार हैं उतने ही नय हैं। संक्षेप में नय दो होते हैं - द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक । वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है । वस्तु के द्रव्यांश का ग्राही द्रव्यार्थिक एवं पर्यायांश का ग्राही पर्यायार्थिक नय है । इन दो नयों के द्वारा ही विश्व के सभी पदार्थों का विश्लेषण किया जा सकता है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के और भी अवान्तर भेद उपलब्ध होते हैं
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जैन परम्परा में नय के भेद के सम्बन्ध में तीन परम्पराएं प्राप्त हैं । आगम परम्परा में नैगम आदि नय के सात भेद उपलब्ध हैं । सिद्धसेन दिवाकर नैगम नय को छोड़कर अवशिष्ट छह नयों को स्वीकार करते हैं । तत्वार्थसूत्र में नय के नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र एवं शब्द ये पांच भेद उपलब्ध हैं । तत्वार्थ में ही नैगम के देशपरिक्षेपी एवं सर्वपरिक्षेपी ये दो भेद भी प्राप्त हैं । अन्तिम शब्द नय के साम्प्रत, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये तीन भेद किये गये हैं ।
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सात नयों का दो में समाहार
जैन दर्शन में नयों की सात भेदों वाली परम्परा ही अधिक प्रचलित एवं मान्य है । इन सात नयों का समाहार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक इन दो नयों में हो जाता है । नैगम, संग्रह एवं व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक एवं ऋजुसूत्र, समभिरूढ़ तथा एवंभूत ये चार पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत हैं । तत्वार्थश्लोकवार्तिक में यह तथ्य अभिव्यक्त हुआ है
संक्षेपाद् द्वौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ । द्रव्यार्थो व्यवहारान्तः पर्यायार्थस्ततोऽपरः ||
ज्ञाननय, अर्थनय एवं शब्दनय में भी इन सात नयों का समाहार किया जाता है । संकल्पप्रधान विचार ज्ञान के आलम्बन से होता है । नैगम नय संकल्पग्राही है अतः वह ज्ञाननय कहलाता है। अर्थ के आश्रय से होने वाला विचार अर्थाश्रयी ( पदार्थाश्रयी) कहलाता है । नैगम से ऋजुसूत्र तक के नय अर्थनय भी कहलाते हैं। शेष तीन शब्दाश्रयी है अतः वे शब्दनय है । अनुयोगद्वार में शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत को शब्द नय कहा गया है अतः शेष चार का अर्थनय में समावेश स्वतः ही हो जाता है । ज्ञानाश्रयी, अर्थाश्रयी एवं शब्दाश्रयी समस्त व्यवहारों का
४० • व्रात्य दर्शन
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