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________________ ४. जैन दर्शन में नय की अवधारणा 'अनन्तधर्मकं वस्तु' वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मात्मक है। वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता ज्ञान का विषय बन सकती है किन्तु शब्द शक्ति ससीम है वह उसे व्यक्त नहीं कर सकती। वस्तु स्वरूप की अभिव्यक्ति में यह व्यावहारिक समस्या थी। उसका समाधान नय सिद्धान्त में प्राप्त होता है। जैन दर्शन में चिंतन की शैली का नाम अनेकान्त दृष्टि और प्रतिपादन की शैली का नाम स्याद्वाद है। भगवान महावीर के युग में प्रमाण और नय का स्पष्ट भेद नहीं था। उस समय प्रत्येक द्रव्य की मीमांसा नय के आधार पर होती थी। नयवाक्य के साथ भी आगम युग में स्यात् शब्द का प्रयोग किया जाता था। सिय अत्थि सिय नत्थि-ये वाक्य नय के आगमयुगीन उदाहरण है। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् जब प्रमाण व्यवस्था हुई तब प्रमाण, नय और दुर्नय ये तीन विभाग किये गये। स्याद्वाद प्रमाण का, सद्वाद नय का एवं सदेववाद दुर्नय का प्रतिनिधि शब्द है। वस्तु व्यवस्था में प्रमाण एवं नय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। तत्वार्थसूत्र में कहा गया-'प्रमाणनयैरधिगमः' प्रमाण एवं नय के द्वारा वस्तु का बोध होता है। वस्तु के सम्यक् अवबोध का साधन प्रमाण एवं नय है। दुर्नय वस्तु के अवबोध को त्रुटित करता है। अनन्त धर्मात्मक द्रव्य या अखण्ड वस्तु का यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। द्रव्य के एक धर्म का सापेक्ष ज्ञान नय है, तथा वस्तु के एक धर्म का निरपेक्ष ज्ञान दुर्नय है 'अनेकांशधीः प्रमाणं तदेकांशधी नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतः' वस्तु सत् ही है, वस्तु सत् है, वस्तु स्यात् सत् है-ये क्रमशः दुर्नय, नय एवं प्रमाण के उदाहरण है। आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगव्यवच्छेदिका में इसको स्पष्ट करते हुये कहा‘सदेव सत्, स्यात् सदिति, त्रिधार्थो, मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः' व्रात्य दर्शन • ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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