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________________ ही अपेक्षाएं हैं। जितनी अपेक्षाएं हैं उतने ही कहने के तरीके हैं। जितने तरीके हैं, उतने ही मतवाद हैं। एक से अनेक सम्बन्ध जुड़ते हैं, सत्य या असत्य के प्रश्न खड़े होने लगते हैं। अनेकान्त एवं नय दृष्टि से हम सत्य की, वस्तु की सम्यक् व्याख्या करने में समर्थ हो जाते हैं तथा जब भी अनेकान्त दृष्टि ओझल हो जाती है; समस्याओं का अम्बार लग जाता है अतः समस्याओं के सम्यक निराकरण के लिए अनेकान्त दृष्टि आवश्यक है। स्याद्वाद एवं सप्तभंगी उस अनेकान्त दृष्टि के ही उपजीवी हैं। इस प्रकार हमने जाना कि अनेकान्त और स्याद्वाद के माध्यम से हम पदार्थ का सम्यक् बोध और सम्यक् प्रतिपादन कर सकते हैं। अनेकान्त एवं स्याद्वाद की उपादेयता केवल वस्तु जगत् तक ही परिसीमित नहीं है। हमारे जीवन का प्रत्येक पहलू इससे संस्पृष्ट तथा उजागर होता है। हमारा जीवन एकता और विविधता का योग है। मनुष्य-मनुष्य एक है। यह समानता की अनुभूति समूची मानव जाति को एकत्व के सूत्र में पिरोए रखती है। सबकी रुचियां, अपेक्षाएं, जीने की पद्धतियां और अपेक्षा पूर्ति के स्रोत भिन्न हैं अतः वह विविध रूपों में विभक्त हो जाती है। व्यक्ति का जिसके साथ अधिक लगाव या ममत्व होता है, उसे वह अधिक महत्त्व देता है। फलतः विभिन्न वर्ग, जाति, भाषा, सम्प्रदाय आदि की रेखाएं उभर आती हैं। किसी को महत्त्व देना बुरा नहीं, यदि उससे दूसरों का महत्त्व और हित खण्डित न हो। समस्या यहीं उत्पन्न होती है कि व्यक्ति स्व को जितना महत्त्व देता है, 'पर' को उतना ही नकारने लग जाता है। यहीं से मानवीय एकता खण्डित होने लगती है। ___एक परिवार में अनेक सदस्य होते हैं। उन सबके हित, स्वार्थ, रुचियां और योग्यताएं भिन्न होती हैं। इस स्थिति में किसी एक के हितों, योग्यताओं आदि को महत्त्व एवं सम्मान देने से तथा दूसरों की उपेक्षा करने से परस्पर टकराव एवं दुराव की स्थितियां पैदा होती है और अलगाव की दीवारें खिंच जाती हैं। धीरे-धीरे वैमनस्य, घृणा प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की भावनाएं वलवली होती जाती हैं। सरस पारिवारिक जीवन में विरसता का विष घुलने लग जाता है। इसके विपरीत यदि अपेक्षानुसार सबके हितों को प्राथमिकता दे तो स्वयं का हित कभी विघटित नहीं होता, वह अधिक सधता है और पारिवारिक जीवन मधुमय बन जाता है। निरपेक्ष व्यवहार जहां एकत्व में बिखराव पैदा करता है वहां सापेक्ष व्यवहार विखरी हुई मणियों को सुन्दर माला का आकार प्रदान करता है। सापेक्ष दृष्टिकोण शान्त, व्रात्य दर्शन • ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003131
Book TitleVratya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages262
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size10 MB
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