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किसी तीसरे व्यक्ति ने पूछा- वह पढ़ने में और विनय व्यवहार में कैसा है? अध्यापक ने कहा- 'क्या कहें यह बड़ा विचित्र है । इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता ।'
यह विचार उस समय निकलता है, जब उसकी पढ़ाई और उच्छृंखलता, ये दोनों एक साथ मुख्य बन दृष्टि के सामने नाचने लग जाती हैं और कभी-कभी ऐसा भी उत्तर होता है, भाई ! अच्छा ही है पढ़ने में योग्य है किन्तु वैसे व्यवहार में योग्य नहीं है। उपर्युक्त प्रश्न के समाधान में तीसरा एवं चौथा उत्तर प्राप्त होता है ।
पांचवां उत्तर - 'योग्य है फिर भी बड़ा विचित्र है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता ।'
छठा उत्तर- 'योग्य नहीं है, फिर भी बड़ा विचित्र है, उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता ।'
सातवां उत्तर - 'योग्य भी है, नहीं भी ।' अरे ! क्या पूछते हो बड़ा विचित्र लड़का है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता ।
उत्तर देने वाले की भिन्न-भिन्न मनः स्थितियां होती हैं । कभी उसके सामने योग्यता की दृष्टि प्रधान हो जाती है और कभी अयोग्यता की। कभी एक साथ दोनों और कभी क्रमशः । कभी योग्यता का बखान होते-होते योग्यता - अयोग्यता दोनों प्रधान बनती हैं, तब आदमी उलझ जाता है । कभी अयोग्यता का बखान होते-होते दोनों प्रधान बनती हैं और उलझन आती है । कभी योग्यता और अयोग्यता दोनों का क्रमिक बखान चलते-चलते दोनों पर एक साथ दृष्टि दौड़ते ही कुछ कहा नहीं जा सकता ऐसी वाणी निकल पड़ती है।
सप्तभंगी के सात भंग वस्तु के यथार्थ स्वरूप का कथन करने का एक युक्तिसंगत वचन प्रकार है । इन भंगों में स्यात् शब्द के प्रयोग का अपना विशेष महत्त्व है । यह विवक्षित धर्म की मुख्यता प्रतिपादित करने के साथ-साथ अविवक्षित धर्म का सर्वथा निषेध नहीं करता किन्तु गौण रूप से उन अविवक्षित धर्मों की सूचना दे देता है । सप्तभंगी की प्रक्रिया के द्वारा वस्तु का सम्यक् एवं आवश्यक बोध प्राप्त हो जाता है ।
हम इस सच्चाई से अवगत हो चुके हैं कि अखण्ड वस्तु जानी जा सकती है किन्तु एक शब्द के द्वारा एक समय में कही नहीं जा सकती। मनुष्य जो कुछ कहता है, उसमें वस्तु के किसी एक पहलू का निरूपण होता है । वस्तु के जितने पहलू हैं, उतने ही सत्य हैं; उतने ही द्रष्टा के विचार हैं । जितने विचार हैं उतनी
३६ • व्रात्य दर्शन
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