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में विधि और निषेध की विवक्षा होती है, तब दोनों को एक ही समय में एक साथ कहने वाला कोई शब्द न होने से घड़ा अवक्तव्य है। यह अवक्तव्य भंग स्पष्ट करता है कि अस्ति और नास्ति एक साथ वाणी के विषय नहीं बन सकते, इस अपेक्षा से घट अवक्तव्य है। __४. स्याद् अस्त्येव घटः स्याद् नास्त्येव घटः-कथंचित् घट है, कथंचित् घट नहीं है। इस वाक्य में क्रमशः पहले घट के विधेयात्मक स्वरूप की विवक्षा है तथा बाद में उसके निषेधात्मक स्वरूप की विवक्षा है। जब घट से अस्ति नास्ति धर्म को क्रमशः कहने का प्रसंग उपस्थित होता है। तब वस्तु में इस चतुर्थ धर्म की संयोजना होती है।
५. स्याद् अस्ति स्याद् अवक्तव्यमेव घटः-घट कथंचित् है और कथंचित् अवक्तव्य है। जब घट के संदर्भ में प्रथम स्वद्रव्य आदि चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति धर्म विवक्षित एवं बाद में अस्ति-नास्ति को एक साथ कहने का प्रसंग होता है तब यह पांचवां भंग बनता है।
६. स्यात् नास्ति अवक्तव्यमेव घटः-घड़ा कथंचित नहीं है और कथंचित अवक्तव्य है। यह भंग पहले परद्रव्य आदि चतुष्टयी की अपेक्षा घट के नास्ति धर्म को प्रकट करता है एवं अस्ति-नास्ति धर्म को युगपत् कहने की विवक्षा में घट को कथंचित् अवक्तव्य मानता है।
७. स्यात् अस्ति स्यात् नास्ति स्यात् अवक्तव्यमेव घट:-कथंचित् घट है, कथंचित् घट नहीं है, कथंचित घट अवक्तव्य है। इस भंग से पहले वस्तु के विधि धर्म, फिर निषेध धर्म और बाद में विधि-निषेध दोनों की युगपत् कथन की अपेक्षा से अवक्तव्यता अभिव्यजित हो रही है।
आचार्य महाप्रज्ञ जी ने 'जैन दर्शन मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में इन सातों भंगों को एक उदाहरण के माध्यम से बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। वह उदाहरण यहां प्रस्तुत है-“एक विद्यार्थी में योग्यता और अयोग्यता ये धर्म मानकर सात भंगों की परीक्षा करने से इन भंगों की व्यावहारिकता का पता लग सकेगा। किसी व्यक्ति ने अध्यापक से पूछा-अमूक विद्यार्थी पढ़ने में कैसा है?'
अध्यापक ने कहा-बड़ा योग्य है।
यहां पढ़ाई की अपेक्षा से उसका योग्यता धर्म मुख्य बन गया और शेष धर्म उसके अन्दर छिप गये-गौण बन गये। दूसरे ने पूछा-विद्यार्थी नम्रता में कैसा है? अध्यापक ने कहा-बड़ा अयोग्य है। यहां उद्दण्डता की अपेक्षा से उसका अयोग्यता धर्म मुख्य बन गया और शेष सब धर्म गौण बन गए।
व्रात्य दर्शन - ३५
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